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________________ अध्याय ३ १६९ क्षयोपशम आदि तीन भेदों का पूर्वोल्लेख हो चुका है । क्षयोपशम आदि तीन के साथ “सास्वादन " नामक एक और जोड़ने पर चार प्रकार का होता है । जो प्राणी उपशम सम्यक्त्व का वमन करता है तब उसे सास्वादन सम्यक्त्व हुआ कहते हैं । उपर्युक्त चार एवं वेदक सम्यक्त्व मिलाने पर पांच प्रकार का सम्यक्त्व होता है । वेदक उसे कहते हैं - शुद्ध, अर्धशुद्ध और अशुद्ध I इस प्रकार इन तीन पुंजों में से दो पुंज क्षीण हो जावे और शुद्ध पुंज के परमाणुओं का वेदन करता है उस समय वेदक सम्यक्त्व कहलाता हैं ।' अब इनकी स्थिति के विषय में ग्रन्थकार कहते हैं क्षयोपशम सम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति छासह सागरोपम से कुछ अधिक एवं जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है । उपशम सम्यक्त्व की स्थिति उत्कृष्ट एवं जघन्य दोनों अन्तर्मुहूर्त है । क्षायिक' सम्यक्त्व की स्थिति मुख्यतः सादि - अनन्त है । भवस्थ अवस्था में तैंतीस सागरोपमं से कुछ अधिक उत्कृष्ट स्थिति एवं जघन्य . स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है । सास्वादन सम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति छः आली की है और जघन्य एक समय की है । * वेद सम्यक्त्वक उत्कृष्ट और जघन्य दोनों स्थिति एक-एक क्षण की है । जीव को उपशम सम्यक्त्व और सारखादन सम्यक्त्व उत्कृष्टतः पांच बार होता है, वेदक सम्यक्त्व एक ही बार होता है और क्षयोपशम सम्यक्त्व तो असंख्य बार होता है। इसी के साथ इस ग्रन्थ में १. वही, गाथा ६७३ ॥ २. बही, गाथा ६७४ ॥ ३. बही, गाथा ६७५ ।। ४. वही, गाथा ६७६ ।। ५-६ बही, गाथा ६७७ ॥ ७. वही, गाथा ६७८-६७९ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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