________________
१४०
जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
सेवा, ३. सम्यक्त्व से भ्रष्ट के संग का और ४. अन्य दार्शनिकों के संग का त्याग, यह चार प्रकार की श्रद्धा है ।
१. परमार्थ संस्तव -
परमार्थसत्व से तात्पर्य यह है कि जीवादि नौ पदों को जानना वह सत्पदों के द्वारा जानना तथा जानने के पश्चात् उनका पुनः- पुनः श्रवण व चिंतन करना । '
२. परमार्थयुक्त मुनि की सेवा --
अब दूसरा श्रद्धा का भेद कहते हैं - सुदृष्टिपरमार्थ संस्तव - जो गीतार्थ मुनि है उनकी सेवा, बहुमान, विनय के द्वारा परिशुद्ध तत्त्व का ज्ञान और उसका योग यह सम्यक्त्व को निर्मल बनाता है । ३. व्यापन्न दर्शन
जिसका सम्यक्त्व नष्ट हो गया है ऐसे निह्नव, अच्छंदा, पास थाकुग्रहा, उन्मार्ग-वेषविडम्बक का उपदेश, उनका सम्पर्क, बलात् सम्यम्दर्शन को मलिन करता है ।
४. कुदर्शनदेशनापरिहार
कुत्सित दृष्टि के वचन अथवा असत्य का प्रलाप करने वाले शास्त्र, मन्दमति आदि के संग को दूर से ही त्याग करना चाहिये | ४ इस प्रकार चार प्रकार की श्रद्धा का विवेचन कर अब आगे ग्रन्थकर्त्ता तीन लिंग का वर्णन करते हैं ।
.
परमागत अर्थात् श्रेष्ठ सिद्धांत - आगम की सुश्रुषा - सेवा, धर्म १. जीवाइपयत्थाणं, सन्तपयाईहिं सत्तहिं परहिं ।
बुद्धावि पुण-पुण सवणचिन्तणं सन्थवो होई । सम्य सप्त. गाथा ९ ॥ गीयत्थचरित्तीण य, सेवा बहुमाणविणयपरिसुद्धा |
तत्तावबोहजोगा, सम्मत्तं निम्मलं कुणड़ || स० सप्त०, गाथा १० ॥ ३. वावन्नदंसणाणं, निण्हवहाच्छन्दकुग्गहहयाणं ।
२.
उम्मग्गुवएसेहिं बलावि मइलिजए सम्मं | वही, गाथा ११ ॥
४ मोहिज्जइ मंदमई, कुदिट्ठिवयणेहिं गुविलढढेहिं ।
दूरेण वज्जियव्वा, तेण इमे सुद्धबुद्धीहिं | वही, गाथा १२ ॥