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अध्याय- २
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कर्मप्रकृति में सूत्रकार ने कषायपाहुड की भांति उपशमनाकरण का विवेचन किया है । उपशम की स्थिति में कर्म थोडे समय के लिए दबे रहते है नष्ट नहीं होते ।
उपशमनाकरण में दो प्रकार की उपशमना का उल्लेख किया है१. करणकृत, २. अकरणकृत |
जो करण साध्य है वह करणकृत है, उससे होने वाली करणकृत उपशमना है । वह भी दो प्रकार की है - १. सर्वोपशमना, २ . देशोपशमना । '
पुनः ग्रन्थकर्त्ता कहते हैं कि मोहनीय कर्म की ही सर्वोपशमना होती है, शेष जो सात कर्म है उनकी देशोपशमना होती है । तथा कषाय प्राभृत के अनुसार ही यहाँ कहा है कि यह सर्वोपशमना पंचेद्रिय, संज्ञी और पर्याप्त लब्धि प्राप्त जीव के अथवा उपशमलब्धिउपदेशश्रवणलब्धि और तीन करण में हेतुभूत ऐसी उत्कृष्ट योगलब्धि युक्त जीव मोहनीयकर्म की उपशमना के योग्य होता है ।
अब ग्रन्थकार करण का कथन करते हैं
जीव प्रथम यथाप्रवृत्तकरण करता है तदनंतर अपूर्वकरण और उसके पश्चात् अनिवृत्तिकरण करता है। इसमें प्रत्येक करण का काल अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण होता है । और सबका एकत्रित काल भी अन्तर्मुहूर्त • प्रमाण ही होता है । उसके पश्चात् जीव को उपशांताद्धा प्राप्त होती है। और वह भी अन्तर्मुहूर्तकाल प्रमाण होती है ।
यहाँ उपशांताद्धा से तात्पर्य औपशमिक सम्यक्त्व के काल से है । "
१. कर्म - प्रकृति, उपशमनाकरण गाथा १, करणकयाकरणावि य, दुविहा उवसमणाय बिइयाए, अकरण अणुइन्नाप, अनुयोगधरे पणिवयामि । २. सध्वसमणा मोहस्सेव उ तस्सुवसमक्किया जोग्गो ।
पंचेंदिओ उ सन्नी - पत्तो लद्धितिगजुत्तो ॥ वही, गाथा ३ ॥ ३. करणं अहाप्रवत्तं, अपुव्वकरण मनियट्टिकरणं च । अंतोमुहुतियाई, उवसंतद्धं च लहइ कमा । वही, गाथा ८ ॥ ४. जैन सिद्धांत बोल संग्रह, पांचवां भाग, पृ० ६० ।।