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________________ १२६ . जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप ___ इसके पश्चात् का गुणस्थान है " सामान्य से क्षीण-कषाय-वीतराग छद्मस्थ जीव होते हैं।" जिनकी कषाय क्षीण हो गई है उन्हें क्षीणकषाय कहते हैं। जो क्षीणकषाय होते हुए वीतराग होते हैं उन्हें क्षीणकषायवीतराग कहते हैं ।' . इससे आगे का गुणस्थान है-सामान्य से सजोगीकेवली जीवं होते हैं । केवल अर्थात् केवलज्ञान का यहाँ ग्रहण किया है। जिसमें इन्द्रिय, आलोक और मन की अपेक्षा नहीं होती है उसे केवल अथवा असहाय कहते हैं। वह जिसे होता है वह केवली है। सन वचन और काया की प्रवृत्ति को योग कहते हैं जो इससे युक्त है उन्हें सयोगी कहते हैं। इस प्रकार सयोग होते हुए केवली हैं उन्हें सयोगी केवली कहते हैं। चारों घातिकौ के क्षय कर देने से, वेदनीय कर्म । के निःशक्ति कर देने से अथवा आठों ही कर्मों के, अवयवरूप साठ उत्तर-कर्म-प्रकृतियों के नष्ट कर देने से इस गुणस्थान में क्षायिक भाव है। अब सूत्रकार अंतिम गुणस्थान का कथन करते हैं कि-सामान्य से अयोग केवली जीव होते हैं । _ जिसके योग विद्यमान नहीं है उसे अयोग कहते हैं अर्थात् जो योगरहित केवली होते हैं उसे अयोगकेवली कहते हैं । छद्म ज्ञानहगाधरणे, तत्र तिष्ठन्तीति छद्मस्था। पृ० १८८ ॥ वही ॥ १. खीण-कसाय-वीय राय-छदुमत्था । सू० २० ॥ क्षीणः कषायो येषां ते क्षीणकषायाः । क्षीणकषायाश्चते वीतरागाश्च क्षोणकषाय वीत रागाः । पृ० १८९-१९० ॥ वही ॥ २ सजोगी केवली ॥ वही ॥ सू० २१, पृ० १९० ॥ ३. केवलं केवलशानं । केवलमसहायमिन्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्षम, तदेषामस्तीति केवलिन: । मनोवाक्काय प्रवृतियोगः योगेन सह वर्तन्त इति सयोगाः । सयोगाश्च ते केवलिनश्च सयोगकेवलिनः ॥ वही। ४. अजोगकेवली ॥ वही ॥ सू० २२, पृ० १९२ ।। ५. न विद्यते योगो यस्य स भवत्ययोगः । “अयोगश्चासौ केवली च अयोगकेवली" ॥ वही । पृ० १९२ ।। -पृ० १९१ ।।
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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