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________________ ने जो खुद के निमित्त बनाया हुआ है उस आहार आदि में से थोड़ा थोड़ा ग्रहण करना चाहिए। जो आहार आदि साधु के निमित्त बनाये या लाये गये हैं, वे साधुओं के लेने लायक नहीं, किन्तु छोड़ देने लायक हैं। महुगारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया । नाणापिंडरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो त्ति बेमि ||५|| सं.छा.ः मधुकरसमा बुद्धा, ये भवन्ति अनिश्रिताः। नानापिण्डरता दान्ताः, तेनोच्यन्ते साधव इति ब्रवीमि ॥५॥ शब्दार्थ - (महुगारसमा) भँवरे के समान (नाणापिंडरया) गृहस्थों के घरों से नाना प्रकार निर्दोष शुद्ध आहार आदि के ग्रहण करने में रक्त, (बुद्धा) जीव, अजीव आदि नव.. तत्त्वों के जाननेवाले (अणिस्सिया) कुल वगैरह के प्रतिबन्ध से रहित (दंता) इन्द्रियों को वश में रखनेवाले (जे) जो पुरुष (भवति) होते हैं (तेण) पूर्वोक्त से वे (साहुणो) साधु (वुच्चति) कहे जाते हैं (त्ति ) ऐसा मैं (बेमि) अपनी बुद्धि से नहीं, किन्तु तीर्थंकरादि कें. उपदेश से कहता हूँ ॥५॥ भ्रमर के समान गृहस्थों के प्रति घर से थोड़ा-थोड़ा निर्दोष प्रासुक आहारादि वाले, धर्म, अधर्म या जीव, अजीवादि तत्त्वों को जाननेवाले, अमुक कुल की ही गोचरी लेना ऐसे प्रतिबन्ध रुकावट से रहित और जितेन्द्रिय जो पुरुष होते हैं, वे 'साधु' कहलाते हैं। श्री शय्यं भवाचार्य अपने दीक्षित पुत्र 'मनक' को कहते हैं कि - हे मनक ! ऐसा मैं अपनी बुद्धि से नहीं, किन्तु तीर्थंकर, गणधर आदि महर्षियों के उपदेश से कहता हूँ । ।। इति प्रथमं द्रुमपुष्पिकाध्ययनं समाप्तम् ॥ २ श्रामण्यपूर्वक अध्ययनम् संबन्ध - पहिले अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय धर्म प्रशंसा है, साधुओं की सभी दिनचर्या धर्म-मूलक है। वह जिनेन्द्र शासन सिवाय अन्यत्र नहीं पायी जाती । अतएव जिनेन्द्रशासन में नव-दीक्षित साधुओं को संयम पालन करते हुए नाना उपसर्गों के आने पर धैर्य रखना चाहिए, लेकिन घबराकर संयम में शिथिल नहीं होना चाहिए। इससे सम्बन्धित आये हुए दूसरे अध्ययन में संयम को धैर्य से पालने का उपदेश दिया जाता है "साधु धर्म का पालन कौन नहीं कर सकता?" कहं नु कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए । पर पर विसी अं (दं) तो, संकप्पस्स वसं गओ || १|| सं.छा.ः कथं नु कुर्यात् श्रामण्यं यः कामान्न निवारयति । पदे पदे विषीदन्, सङ्कल्पस्य वशंगतः।।१।। श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 6
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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