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________________ स्तोकमास्वादनार्थं, हस्तके देहि मे। मा मे अत्यम्लं पूर्ति, नालं तृष्णाविनिवृत्तये ।।७८।। तच्चात्यम्ल पूर्ति, नालं तृष्णानिवृत्तये। ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ।।९।। तच्च भवेदकामेन, विमनस्केन प्रतीप्सितम्। तदात्मना न पिबेच्च, नाप्यन्येभ्यो दापयेत् ॥८॥ एकान्तमवक्रम्य, अचित्तं प्रतिलेख्य। यतं परिष्ठापयेत्, परिष्ठाप्य प्रतिक्रामेत्।।८।। भावार्थः अशन के जैसा पानी भी वर्णादिगुण युक्त ऊँच अर्थात् पूर्ण निर्दोष हो,वर्णादि से ऊँच अर्थात् द्राक्षादि का जल, वर्णादि से हीन कांजी आदि का पानी, गुड़ के घड़े का धोया हुआ पानी,आटेका, चाँवल का धोया पानी, सचित्त हो वहां तक न लें। दीर्घकाल का धोया हुआ देखने से एवं पूछने से शंकारहित श्रुतानुसार निर्दोष हो तो ग्रहण करें। उष्णादि जल अजीव अर्थात् अचित्त बना हुआ हो तो लेना एवं शंका हो तो उसकी परीक्षाकर लेने का निर्देश देते हुए कहा है कि 'दाता से कहे मुझे उसका स्वाद परखने के लिए थोड़ा-सा जल दो, अतीव खट्टा दुर्गंधयुक्त हो तो, तृषा छिपाने में समर्थ न होने से ऐसा अति खट्टा दुर्गंधयुक्त पानी देनेवाले दाता से मना करे, ऐसा पानी हमें नहीं कल्पता। कभी दाना के आग्रह से या भूल से (मन का पूर्ण उपयोग न रहने से) ऐसाजल आ गया हो तो, वह जल पीना नहीं; दूसरों को देना नहीं। एकान्तस्थल में जाकर अचित्त भूमि पर चक्षु से पडिलेहनकर जयणापूर्वक परठना चाहिए। उपाश्रय में आकर इरियावही करनी चाहिए ।।७५-८१।। गोचरी कब कैसे करें? सिआ अ गोयरग्गगओ, इच्छिज्जा परिभुत्तु। कुठ्ठगं भित्तिमूलं वा, पडिलेहिताण फासुअं ।।२।। अणुंन्नवित्तु मेहावी, पडिच्छन्नंमि संवुडे। हत्थगं संपमज्जित्ता, तत्थ अँजिज्ज संजए ।।८३|| तत्थ से भुंजमाणस्स, अट्ठिअं कंटओ सिआ। तणकट्ठसकरं वावि, अन्नं वावि तहाविहं ।।८४|| तं उक्खिवितु न निक्खिवे, आसरण न छहए। हत्येण तं गहेऊण, एगंतमवक्कमे ।।५।। एगंतमवक्षमित्ता, अचित्तं पडिलेहिआ। जयं परिविज्जा, परिठ्ठप्प पडिक्कमे ||८६|| सं.छा.: स्याच्च गोचराग्रगत, इच्छेत् परिभोक्तुम्। श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 73
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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