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श्री-श्रुतकेवलि-श्री-शय्यम्भवसूरीश्वर-विरचितम्श्री दशवैकालिक सूत्रम्
[सार्थ] १ द्रुमपुष्पिका-अध्ययनम् धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो,।।
देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ||१|| सं.छा. धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टं, अहिंसा संयमस्तपः। ...
देवा अपि तं नमस्यन्ति, यस्य धर्मे सदा मनः।।१।। शब्दार्थ - (अहिंसा) जीवदया (संजमो) संयत (तवो) तप रूप (धम्मो) सर्वज्ञभाषित. . धर्म (मंगल) सर्व मंगल में (उक्किठ) उत्कृष्ट मंगल है (जस्स) जिस पुरुष का (मणो) मन (सया) निरन्तर (धम्मे) धर्म में लगा रहता है (तं) उसको (देवा वि) इन्द्र आदि देवता भी (नमसंति) नमस्कार करते हैं।
-दया, संयम और तप रूप जिनेश्वर-प्ररूपित धर्म सभी मंगलों में उत्कृष्ट . मंगल है। जो पुरुष धर्माराधन में लगे रहते हैं, उनको भवनपति, व्यन्तर,ज्योतिष्क औरं वैमानिक इन चार निकाय के इन्द्रादि देवता भी वन्दन करते हैं। . '
प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह इन पांच आश्रवों का त्याग करना, पांचों इन्द्रियों का निग्रह करना, क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों को जीतना और मन, वचन,काया इन तीन दंडों को अशुभ व्यापारों में न लगाना; ये सतरह प्रकार का संयम है और अनशन', ऊनोदरिका', वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग', कायक्लेश', संलीनता, प्रायश्चित्त', विनय', वैयावृत्य', स्वाध्याय", ध्यान", कायोत्सर्गर; यह बारह प्रकार का तप है।
जहा दुम्मस्स पुप्फेसु, भमटो आवियह रसं। ण य पुप्फं किलामेइ, सो अ पीणेइ अप्पयं ||२|| एमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो।
विहंगमा व पुष्पेंसु, दाणभत्तेसणे रया।।३।। सं.छा.ः यथा दुमस्य पुष्पेषु, भ्रमर आपिबति रसम्।
न च पुष्पं क्लमयति, स च प्रीणयत्यात्मानम् ।।२।। १ आहार को छोड़ना, २ छोटा कवल लेना, ३ धीरे-धीरे आहार आदि को घटाना, ४ विगइ को छोड़ना, ५ लोच, आतापना आदि करना, ६ पांचों इन्द्रियों को वश में रखना, ७ पापों की आलोयणा लेना, ८ निष्कपटरूप से अभ्युत्थान आदि वर्ताव रखना, ९ गुरु आदि की सेवा करना, १० पढ़े हुए ग्रन्थों का पुनरावर्तन करना या सूत्रों को वांचना, ११ पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत आदि अवस्थाओं का चिन्तन करना, १२ नियमित समय के लिए काया को वोसिराना (शरीर की मूर्छा उतार देना)।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 4