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अइभूमिं न गच्छेज्जा, गोअरग्गगओ मुणी।
कुलस्स भूमिं जाणित्ता, मिअं भूमि परकमे ||२४|| सं.छा.ः अतिभूमिं न गच्छेद्, गोचराग्रगतो मुनिः। . कुलस्य भूमिं ज्ञात्वा, मितां भूमिं पराक्रामेत्॥२४॥ भावार्थ : मुनि को उत्तम कुल की नियमित भूमि की मर्यादा को जानकर गृहस्थ की . अनुमति लेकर उतनी ही भूमि तक जाना। आगे जाना नहीं चाहिए ।।२४।।
तत्थेव पडिलेहिज्जा, भूमिभागं विअक्खणो।
सिणाणस्स य वच्चस्स, संलोगं परिवज्जर||२५|| सं.छा. तत्रैव प्रत्युपेक्षेत, भूमिभागं विचक्षणः।
स्नानस्य च वर्चसः, संलोकं परिवर्जयेत् ।।२५।। । भावार्थः मर्यादायुक्त भूमि तक गये हुए मुनि को भूमि का दृष्टि पडिलेहन के बाद खड़े रहते समय स्नानागार या बड़ीनीति का स्थान (बाथरुम या लेट्रीन) देखने में आते हो तो उस स्थान से शीघ्र दूर हो जाय। स्व पर भाव प्राणों की सुरक्षा हेतु इन नियमों का पालन अतीव आवश्यक है।।२५।।
दगमट्टियआयाणे, बीआणि हरिआणि | .. परिवज्जंतो चिठ्ठिज्जा, सव्विंदियसमाहिए||२६|| सं.छा.: उदकमृत्तिकादानं, बीजानि हरितानि च। : परिवर्जयस्तिष्ठेत्, सर्वेन्द्रियसमाहितः।।२६॥ भावार्थ : जल एवं मिट्टी लाने के मार्ग को एवं वनस्पति के स्थान को छोड़कर, सभी इंद्रियों को समभाव में रखकर खड़ा रहना चाहिए ।।२६।। . कल्प्याकल्प्य विचार :. तत्थ से चिट्ठमाणस्स, आहरे पाणभोअणं|
अकप्पिन गेरिहज्जा, पडिगाहिज्ज कप्पि२७|| आहरंती सिया तत्थ, परिसाडिज्ज भोअणं| दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं||२८|| .. संमद्दमाणी पाणाणि, बीआणि हरिआणि| असंजमकरिं नच्चा, तारिसिं परिवज्जए||२९|| .. साहटु निक्खिवित्ताणं सचित्तं घट्टिआणि च। तहेव समणट्ठाए, उदगं संपणुल्लिआ||३०|| .
ओगाहइत्ता चलइत्ता, आहरे पाणभोअणं| दितिअं पडि आइक्खे, न मे कप्पड़ तारिस।।३१।। पुरेकम्मेण हत्येण, दव्वीए भायणेण वा।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 63