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________________ नरकोपमं ज्ञात्वा दुःखमुत्तमं, रमेत तस्मात् पर्याये पण्डितः ।।११।। भावार्थ : श्रमण पर्याय में रक्त आत्मा को देव समान उत्तम सुख जानकर और श्रमण पर्याय में अप्रीति धारक आत्मा को नरक समान भयंकर दुःख जानकर पंडित पुरुषों को दीक्षा पर्याय में आसक्त रहना चाहिए।।११।। धर्म भ्रष्ट की अवहेलना :धम्माउ भट्ठ सिरिओ अवेयं, जलग्गि विज्झाअ-मिवऽप्पते। हीलति णं दुविहि कुसीला, दाढुड्ढिअं घोरविसं व नागं ।।१२।। सं.छा. धर्माद् भ्रष्टं श्रियोऽपेतं, यज्ञाग्निं विध्यातमिवाऽल्पतेजसम्। हीलयन्ति, एनं दुर्विहितं कुशीलाः, उद्धृतदंष्ट्रघोरविषमिव नागम् ॥१२॥ भावार्थ : चारित्र धर्म से भ्रष्ट, तपरूप लक्ष्मी से रहित, मुनि अयोग्य आचरण के कारण यज्ञाग्नि के सम निस्तेज होकर राख सम कदर्थना प्राप्त करता है। सहचारी उसकी अवहेलना करते हैं। दाढ़े उखाड़ लेने के बाद घोर विषधर सर्प की अवहेलना लोग करते हैं। वैसे ही दीक्षा से भ्रष्ट व्यक्ति की लोग अवहेलना करते हैं।।१२।। इहेवऽधम्मो अयसो अकित्ती, दुलामधिज्जं च पिहुज्जणंमि। चुअस्स धम्माउ अहम्मसेविणो, संभिन्नवित्तस्स य हिट्ठओ गइ ||१३|| सं.छा.: इहैवाऽधर्मोऽयशोऽकीर्तिः, दुर्नामधेयं च पृथग् जने। च्युतस्य धर्मादधर्मसेविनः, सम्भिन्नवृत्तस्य चाधस्ताद्गतिः ।।१३।। . भावार्थ : धर्म भ्रष्ट आत्मा को इस लोक में लोग अधर्मी शब्द से संबोधित करते हैं, सामान्य नीच वर्ग में भी उसकी अपयश, अपकीर्ति एवं बदनामी के द्वारा अवहेलना होती है। स्त्री परिवारादि निमित्ते छकाय हिंसक बनकर अधर्म सेवी एवं चारित्र के खंडन से क्लिष्ट अशुभ कर्मों का बंधकर नरकादि गतियों में चला जाता है।।१३।। भुंजित्नु भोगाइं पसज्झ चेअसा, तहाविहं कट्टु असंजमं बहुं। गई च गच्छे अणभिज्झिअं दुहं, बोही अ से नो सुलहा पुणो पुणो ||१४|| सं.छा.ः भुक्त्वा भोगान् प्रसह्य चेतसा, तथाविधं कृत्वाऽसंयमं बहुम्। - गतिं च गच्छत्यनभिध्यातां दुःखां, बोधिश्चास्य नो सुलभा पुनः पुनः।।१४।। भावार्थ : चारित्र से भ्रष्ट स्वच्छंद चित्त से भौतिक भोगों को भोगकर अज्ञ जनोचित प्रचुर असंयमाचरणकर आयु पूर्णकर स्वभाव से ही असुंदर दुःखजनक अनिष्ट गति में जाता है। उसे बार-बार जन्म मरण करने पर भी बोधि/सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती वह दुर्लभ बोधी होता है। उसको प्रवचन की विराधना करने के कारण दुर्लभ बोधिपना प्राप्त होता है।।१४।। इमस्स ता नेरईअस्स जंतुणो, दुहोवणीअस्स किलेसवत्तिणो। पलिओवमं झिज्जइ सागरोवम, किमंग पुण मज्झ इमं मणोदुहं ||१५|| श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 173
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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