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परिआए, (१२) सावज्जे गिहवासे, अणवज्जे परिआए, (१३) बहुसाहारणा गिहीणं कामभोगा, (१४) पत्तेअं 'पुल्लपावं, (१५) अणिच्चे खलु भो मणुआण जीविए कुसग्गजलबिंदुचंचले, (१६) बहुं च खलु भो पावं कम्म पगडं, (१७) पावाणं च खलु भो कडाणं कम्माणं पुल्विं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिकंताणं वेइत्ता मुक्खो, नन्थि अवेइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता (१८) अट्ठारसमं पयं भवई, भवई अ
इत्थ सिलोगो।। सं.छा.ः तद्यथा हं भो दुःषमायां दुष्प्रजीविनः (१) लघव इत्वरा गृहिणां
कामभोगाः (२) भूयश्च स्वातिबहुला मनुष्याः (३) इदं च मे दुःखं न चिरकालोपस्थायि भविष्यति (४) अवमजन-पुरस्कारः (५) वान्तस्य प्रत्यापानम् (६) अधरगतिवासोपसम्पत् (७) दुर्लभः खलु भो! गृहिणां धर्मो गृहपाशमध्ये वसताम् (८) आतङ्कस्तस्य वधाय भवति (९) सङ्कल्पस्तस्य वधाय भवति (१०) सोपक्लेशो गृहवासः, निरुपक्लेशः पर्यायः, (११) बन्धो गृहवासः, मोक्षः पर्यायः, (१२) सावद्यो गृहवासः, अनवद्यः पर्यायः, (१३) बहुसांधारणा गृहिणां कामभोगाः (१४) प्रत्येकं पुण्यपापं, (१५) अनित्यं खलु भो! मनुष्याणां जीवितं कुशाग्रजलबिन्दुचञ्चलम् (१६). बहु च खलु भोः! पापं कर्म प्रकृतं (१७) पापानां च खलु भोः कृतानां कर्मणां, पूर्वं दुश्चरितानां दुष्पराक्रान्तानां वेदयित्वा मोक्षो, नास्ति अवेदयित्वा, तपसा वा क्षपयित्वा (१८) अष्टादशं पदं भवति,
भवति चात्र श्लोकः ।। भावार्थ : वे अठारह स्थान इस प्रकार है। :'. (१) ओह! इस दुःषम काल के प्रभाव से प्राणी दुःख से जीवन व्यतीत करते हैं तो मुझे विडंबना दायक गृहस्थाश्रम से क्या प्रयोजन? (२) गृहस्थाश्रम के काम भोग असार, अल्पकालस्थायी, मधुलिप्त तलवार की धार जैसे होने से, मुझे इसका क्या प्रयोजन? (३) गृहस्थाश्रम के मानव, माया की प्रबलतावाले होने से विश्वासपात्र नहीं हैं, विश्वास पात्र न होने से वहां सुख कैसा? (४) साध्ववस्था का शारीरिक मानसिक दुःख चिरस्थाई तो है नहीं तो फिर गृहस्थाश्रम का क्या प्रयोजन? (५) राजा महाराजाओं से सन्मानित मुनि को दीक्षा छोड़ने पर नीच वर्ग के लोगों का भी सन्मान करना पड़ेगा। ऐसे गृहस्थाश्रम का क्या प्रयोजन? (६) त्यागे हुए भोगों को ग्रहण करने पर वमन पदार्थ खाने वाले श्वानादि समान, मुझे बनना पड़ेगा। ऐसे गृहस्थाश्रम का
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 169