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________________ तीनों काल संबंधी भाषा का प्रयोग : - अईअंमि अ कालंमि, पच्चुप्पण्णमणागर। निस्संकिअं भवे जं तु, एवमेअं तु निविसे ||१०॥ सं.छा.ः अतीते च काले, प्रत्युत्पन्नेऽनागते। निःशङ्कितं भवेद्यत्तु, एवमेतदिति तु निर्दिशेत् ।।१०।। भावार्थ : भूत, भविष्य एवं वर्तमान काल में जिस पदार्थ के,कार्य के विषय में निःशंक हो और वह निष्पाप हो तो यह इस प्रकार है, ऐसा साधु कहे। परुष एवं अतीव भूतोपघाती भाषा का त्याग : तहेव फरुन्सा भासा, गुरुभूओवघाइणी। सच्चावि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो ||११|| सं.छा. तथैव परुषा भाषा, गुरुभूतोपघातिनी। सत्यापि सा न वक्तव्या, यतः पापस्यागमः ।।११।। भावार्थ : और परुष (कठोर) भावस्नेह रहित एवं जिससे प्राणीयों का उपघात विशेष हो ऐसी पापोत्पादक भाषा का अगर वह सत्य है तो भी न बोले ।।११।। प्रयोजनवश भी ऐसे न बुलावें: तहेव काणं काणत्ति, पंडगं पंडगेत्ति वा। वाहिअं वावि रोगित्ति, तेणं चोरेत्ति नो वए ।।१२।। एएणऽब्लेण अटेणं,, परो जेणुवहम्मइ। आयारभावदोसन्न, न तं भासिज्ज पन्नवं ||१३|| तहेव होले गोलित्ति, साणे वा वसुलित्ति- | दुमर दुहए वावि, नेवं भासिज्ज पन्नवं ||१४|| अज्जिए पज्जिए वावि, अम्मो माउसिअत्ति | पिउस्सिए भायणिज्जत्ति, धूर णतुणिअत्ति अ ||१५|| हले हलित्ति अल्लित्ति, भट्टे सामिणि गोमिणि| होले गोले वसुलित्ति, इन्थिअं नेवमालवे ||१६|| सं.छा.ः तथैव काणं काण इति, पण्डकं पण्डक इति। व्याधितं वाऽपि रोगीति, स्तेनं चोर इति नो वदेत् ।।१२।। एतेनान्येनार्थेन, परो येनोपहन्यते। आचारभावदोषज्ञो, न तं भाषेत प्रज्ञावान् ।।१३।। तथैव होलो गोल इति, श्वा वा वसुल इति च। द्रमको दुर्भगो वाऽपि, नैवं भाषेत प्रज्ञावान् ।।१४।। श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 111
SR No.002252
Book TitleSarth Dashvaikalik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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