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________________ ७० : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक दूसरे दिन चाँद ने विरस्पत से कहा कि जिसे मैंने कल देखा था उसे मेरे घर बुलाओ या मुझे उसके घर ले चलो।विरस्पत ने लोरक को नागरिकज्योनार में बुलाने को कहा । चाँद ने अपनी मनौती को बात गढ़कर पिता से ज्योनार कराई । ज्योनार के व्यंजनों, पशु-पक्षियों के शिकार आदि का वर्णन किया गया है। चाँद ज्योनार के समय धौरहर पर खड़ी देख रही थी। लोरक ने उसे देखा और खाना-पीना भूल गया। . .. वह अपने घर जाकर चारपाई पर पड़ गया। उसकी माँ विलाप करने लगी। सयाने, वैद्यादि बुलाये गये । पर उसे कोई रोग नहीं निकला। वह कामविद्ध था। विरस्पत ने लोरक की माँ का विलाप सुना तो वह उसके घर पहुंची और रोने का कारण पूछा। कारण जानकर वह लोरक के पास गई। उसने लोरक से कहा-मैं चाँद की धाय हूँ। बुलाने पर आई हूँ। आँख खोलकर अपनी बात कहो । चाँद के नाम से लोरक उठकर बैठ गया। उसने बात कहने में लज्जा का अनुभव किया। इससे उसकी माँ वहाँ से हट गई। लोरक ने विरस्पत से चाँद को मिलाने की विनय की। उसने कहा-जोगी-वेश में भभूत लगाकर मंदिर में बैठना, वहीं वह आयेगी तब दर्शन कर लेना । वह उसकी माँ को समझाकर चली गई। ____ लोरक जोगी बनकर १ वर्ष तक मंदिर की सेवा में लगा रहा और प्रेम की कामना करता रहा । दीवाली के अवसर पर चाँद सखियों के साथ मंदिर आई । रास्ते में उसका हार टूट गया। सखियाँ उसके मोतियों को इकट्ठा करने लगीं। विरस्पत ने चाँद से मंदिर में चलकर विश्राम करने को कहा। चाँद और विरस्पत मंदिर गईं। विरस्पत ने मंदिर में झाँककर कहा कि आजकल मंदिर में एक भगवंत आये हुए हैं, जाकर दर्शन कर लो, सारे पाप भाग जायेंगे। चाँद योगी को देखते ही बाहर निकल आई और योगी की स्थिति बताई। सखियाँ हार लेकर आ गईं। वह हार पहन घर चली आई। चेत आने पर लोरक विलाप करने लगा। उधर चाँद ने विरस्पत से लोरक से भेंट कराने को कहा। विरस्पत ने मंदिरवाले योगी लोरक की बात बताई तो चाँद को उससे बात न करने का दुःख हुआ। विरस्पत लोरक से योगीवेश त्यागकर घर जाने को कह आई । उसने वैसा ही किया। अब दोनों एक-दूसरे से मिलने को छटपटाते थे परन्तु कोई उपाय नहीं था। चांद ने पुनः विरस्पत को लोरक के पास भेजा। विरस्पत ने चाँद के धौरहर का मार्ग लोरक को दिखा दिया। लोरक ने एक पाट और
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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