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________________ प्रास्ताविक : १५ कठिनाइयाँ, देव-असुर, गन्धर्व-यक्षादि के अलौकिक कार्यों का बहुत अधिक विस्तार होता है। २. कथा-आख्यायिका का कथानक अधिक प्रवाहय क्त, इतिवृत्तात्मक और आकर्षक होता है किन्तु उसका मूलाधार यथार्थ जीवन नहीं होता (बाण की हर्षचरित सदश कुछ रचनाएँ इसके लिए अपवादस्वरूप हैं ) । इसमें कल्पना-जन्य अलौकिक, अतिमानवीय एवं अतिप्राकृत तत्त्वों, यात्राओं तथा असम्भव घटनाओं की अधिकता होती है। परिणामस्वरूप उसमें काल्पनिक कथा का चमत्कार और असम्भव या अविश्वसनीय घटनाओं की भरमार होती है। ३. कथा-आख्यायिका में कथानक की कोई शृंखलित योजना नहीं होतो । उसका कथानक स्फीतियुक्त, उलझा हुआ और जटिल होता है। प्रायः उसका प्रारम्भ ही कथांतर से होता है, फिर उसमें कथा के भीतर कथा और उस अन्तर्गत कथा में भी गर्भकथाएँ भरी रहती हैं। कुछ कथाएँ ऐसी भी होती हैं जिनमें अनेक कथाएँ किसी एक सूत्र से परस्पर बाँध दी गई रहती हैं । यद्यपि उन सबका अस्तित्व अलग-अलग ही रहता है। ४. कथा-आख्यायिकाओं की कथाओं में विवाह और उसके लिए युद्ध तथा प्रेम के संयोग एवं वियोग पक्ष के वर्णन पर अधिक ध्यान दिया जाता है । परिणामस्वरूप उसके नायक प्रायः धीर ललित होते हैं और उनका जीवन अयथार्थ पर आधारित होता है। वे प्रायः निजधरी होते हैं या कथाकार द्वारा निजन्धरी ऊँचाई तक पहुँचा दिये जाते हैं । भारतीय कथाओं में विक्रमादित्य, सातवाहन, उदयन, दुष्यन्त और नल आदि ऐसे ही चरित्र हैं, जो ऐतिहासिक होते हुए भी निजन्धरी व्यक्तित्व द्वारा गढ़े हुए हैं। युद्ध, साहस एवं वीरता के कार्यों का वर्णन कथा-आख्यायिकाओं में भी होता है पर वैसा नहीं जैसा अलंकृत काव्यों में होता है । कथाकार युद्ध और वीरता को प्रेम और शृंगार का साधनमात्र समझता है, जिससे उसका मन इन बातों में ही रमता है। पहले लिखा जा चुका है कि हिन्दी प्रेमाख्यानकों की एक सुदृढ़ परम्परा १. विस्तार के लिए देखिए-डा० शम्भूनाथ सिंह, हिन्दी महाकाव्यों का स्वरूप और विकास, पृ० ४०१-४.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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