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प्रास्ताविक : ५
कनकावतो, कामलता, मधुकरमालतो, रतनावली, छोता आदि जान कवि कृत उनतोस प्रेमाख्यानों तथा नूरजहाँ, लैला-मजननूँ, युसुफ - जुलेखा आदि की गणना की जा सकती है ।
उक्त हिन्दी प्रेमाख्यान साहित्य के सम्बन्ध में एक बात जो उल्लेखनीय है वह यह कि हिन्दी प्रेमाख्यानकों की दो धाराएँ रही हैं१. विशुद्ध भारतीय या हिन्दू प्रेमाख्यान, २. सूफी प्रेमाख्यानक । इन धाराओं का विशद विवेचन प्रस्तुत प्रबन्ध के द्वितीय अध्याय में किया गया है अतः यहाँ इनका उल्लेख मात्र ही पर्याप्त होगा। सूफी कवियों ने मनवी पद्धति में रचनाएँ कीं । परिणामतः भारतीय प्रेमाख्यानकों की शैली में परिवर्तन आ गया । सूफियों के मतानुसार लौकिक प्रेम तथा अलौकिक प्रेम में कोई विशेष अन्तर नहीं होता । उनकी मान्यता है कि इश्क ह्कीको ( अलौकिक प्रेम ) के लिए इश्क मजाज़ी ( लौकिक प्रेम ) का होना भी अनिवार्य है :
मजाजी है जरूर । मिलता है ||
खुदा
( एक सूफी कवि ) इन सूफी साधकों और कवियों ने भारतीय अभारतीय पद्धतियों का ध्यान न कर दोनों का मिश्रण कर दिया । इस प्रकार हिन्दी प्रेमाख्यानक साहित्य एक नये काव्यरूप में विकसित हुआ । इसका एक कारण यह भी था कि मध्यकालीन राजनीतिक उथल-पुथल के कारण प्रेमाख्यानकों की शैली पर विभिन्न प्रकार के प्रभाव पड़े ।
sor हकीकी के लिए इश्क बैवसीला कहीं बन्दे को
डा० शिवप्रसाद सिंह भारतीय प्रेमाख्यानकों के विषय में लिखते हैं : 'भारतीय प्रेमाख्यानक सम्पूर्ण एशियाई संस्कृति की प्रतिफलन पीठिका है। इनमें अनुस्यूत तत्त्वों के समाजशास्त्रीय, पुरातात्त्विक और ऐतिहासिक अध्ययन का अभी आरम्भ हो हुआ है । यह विपुल ज्ञानराशि अनेकानेक सुधीजनों के श्रम और शक्ति का आह्वान करती है ।" वस्तुतः हिन्दी प्रेमाख्यान साहित्य में विविध रूपों का मिश्रण होने से एक नये काव्य रूप का जन्म हुआ है | हिन्दी साहित्य में पौराणिक प्रेमाख्यानों के आधार पर भी कई रचनाएँ हुईं जिनके माध्यम से यह कहा जा सकता है कि
१. डा० शिवप्रसाद सिंह, रसरतन की भूमिका, पृ० ७३.