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________________ बार-बार अनुनय-विनय करने पर एवं अपने प्रमाद के लिए क्षमायाचना करने पर उन्होंने कहा कि शेष चार पूर्वों की अनुज्ञा न दे कर मैं उनकी सूत्र वाचना देता हूँ, किन्तु तुम इसे दूसरों को मत पढ़ाना और फिर उन्होंने स्थूलिभद्र को शेष चार पूर्व का केवल मूल पाठ पढ़ाया । उसका विशेष विशदार्थ स्पष्ट नहीं किया। परिणामतः श्रमण संघ में भद्रबाहु स्वामी तक चतुर्दश पूर्व का संपूर्ण ज्ञान रहा और उनके स्वर्गवास के पश्चात् स्थूलभद्र तक चौदह पूर्वों में से दस पूर्वों का पूर्ण और शेष चार पूर्वों का मूल पाठ का ज्ञान शेष रह गया । स्थूलिभद्र शेष चार पूर्वो के अर्थज्ञान से वंचित रहे । स्थूलिभद्र का स्वर्गवास वीर निर्वाण के २१५ या मतान्तर से २१९ वर्ष बाद हुआ । वस्तुत: देखा जाये तो स्थूलिभद्र भी श्रुतकेवली नहीं थे, क्योंकि उन्होंने दस पूर्व तो सूत्र और अर्थ सहित पढ़े थे, किन्तु शेष चार पूर्व मात्र सूत्रत: ही पढ़े थे । उन्हें अर्थ का ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था । अतएव श्वेतांबर मतानुसार यही कहा जायेगा कि भद्रबाहु स्वामी के स्वर्गवास के साथ ही (वीर निर्वाण के १७० वर्ष बाद) श्रुत केवली का लोप हो गया । उसके बाद संपूर्ण श्रुत का ज्ञाता कोई नहीं हुआ । दिगंबर परंपरा श्रुत वली का लोप १६२ वर्ष बाद माना गया है । इस प्रकार दोनों की मान्यता में आठ वर्ष का अन्तर है । पाटलिपुत्र वाचना में श्रुत को व्यवस्थित रखने का जो प्रयत्न हुआ था, उसका क्रम कुछ समय तक तो ठीक चलता रहा। लेकिन उसके बाद तज्झ आचार्यों के कालधर्म को प्राप्त होते जाने, भौगोलिक दूरियों तथा योग्य विद्वान अधिकारी शिष्यों के न मिलने तथा समय समय पर दीर्घकालीन दुर्भिक्षों के पड़ने से श्रुत का पठन-पाठन पूर्ववत् न चल सका । ग्रहण- गुण और अनुप्रेक्षा के अभाव में बहुत सा सुरक्षित अंश भी नष्ट हो गया । इस कारण आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में श्रमण संघ पुन: मथुरा में एकत्र हुआ और जिसको जो याद था, उसके आधार पर कालिक श्रुत को व्यवस्थित किया गया । आर्य स्कंदिल का युग प्रधानत्व काल वीर निर्वाण संवत ८२७ से ८४० माना जाता है । अत: यह वाचना इसी बीच हुई होगी। वाचना मथुरा में होने से यह माथुरी वाचना कहलायी । इस वाचना के फलस्वरूप आगम लिखे भी गये । * वल्लभी वाचना (प्रथम) माथुरी वाचना के काल में नागार्जुन सूरि ने भी वल्लभी में श्रमण संघ को एकत्र करके आगमों को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया था। उस समय उपस्थित श्रमणों में से जिस-जिस को जो आगम, अनुयोग और प्रकरण ग्रंथ याद थे, वे लिपिबद्ध किये गये और विस्मृत स्थलों को पूर्वापर संबंध के अनुसार ठीक करके वाचना दी गयी । (२२)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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