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स्थानांग सूत्र (२७७) में चन्द्र प्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति और द्वीप सागर इन चार प्रज्ञप्तियों को अंगबाह्य कहा गया है। इनमें से जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति के अतिरिक्त शेष तीन कालिक हैं । आचार प्रकल्प(निशीथ), आचार दशा, बंध दशा, द्विगृद्धि दशा, दीर्घ दशा और संक्षेपिता दशा का भी स्थानांग (७५५) में उल्लेख है, किन्तु वेद्यदशा आदि अनुपलब्ध है। टीकाकार के समय में भी यही स्थिति थी। अत: निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि ये कौन से ग्रंथ थे। समवायांग में उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों के नाम दिये हैं ३ तथा दशा, कल्प और व्यवहार इन तीन के उद्देशन काल की भी चर्चा है, किन्तु उनकी छेद संज्ञा नहीं दी गयी है । छेद संज्ञा कब प्रचलित हुई और प्रारंभ में उसमें कौन-कौन से ग्रंथ सम्मिलित थे, यह भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता । आवश्यक नियुक्ति में सर्व प्रथम छेद सूत्र का उल्लेख मिलता है । उससे प्राचीन उल्लेख अधुना अप्राप्य है । इससे अभी यह कहा जा सकता है कि आवश्यक नियुक्ति के काल में छेद सूत्र का एक पृथक् वर्ग स्थापित हो चुका था।
कुवलयमाला में भी श्रमणों के अध्ययन और चिन्तन योग्य ग्रंथों व विषयों के नाम गिनाये हैं, उनमें सर्वप्रथम आचार आदि अंगों का व तदनन्तर प्रज्ञापना, सूर्य प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति का उल्लेख है।
- श्री चंद्र आचार्य ने सुख बोधा समाचारी (लेखन काल ई.स. १११२) की रचना की है। उसमें उन्होंने जो वर्णन किया है, उससे यह पता चलता है कि उनके काल तक अंग और उपांग तथा अमुक अंग और अमुक उपांग यह व्यवस्था बन चुकी थी। इसके अतिरिक्त यह भी फलित होता है कि उनके समय तक अंग, उपांग, प्रकीर्णक ये नाम तथा उपांगों में कौन-कौन से ग्रंथ समाविष्ट हैं, यह निश्चित हो चुका था ।मूल संज्ञा किसी की भी नहीं मिलती, जो आगे चल कर आवश्यक आदि को मिली। जिनप्रभ आचार्य ने अपने 'सिद्धान्तागमस्तव' में आगमों का नाम पूर्वक स्तवन किया है, किन्तु वर्गीकरण नहीं किया है । आचार्य उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थ भाष्य में अंग के साथ उपांग शब्द का निर्देश किया है और अंगबाह्य ग्रंथ ही उन्हें उपांग शब्द से अभिप्रेत है। आचार्य उमास्वाति ने अंगबाह्य की जो सूची दी है, उसे भी जिनप्रभ आचार्य ने अपने विधिमार्ग प्रथा ग्रंथ में समाविष्ट किया है। विधि मार्ग प्रथा ग्रंथ में . उन्होंने आगमों के स्वाध्याय की तपोविधि का वर्णन किया है। १. स्थानांग १५२ २. स्थानांग ४३३, समवायांग २८ ३. समवायांग, समवाय ३६ ४. कुवलयमाला पृष्ठ ३४