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________________ गया, तथापि गौतम गणधर से जो परंपरा चालू हई थी कि अंगश्रुत को प्रवाहित करने के लिए उसे उसके योग्य उत्तराधिकारी को सौंप दिया जाये, वह ६८३ वर्ष पर्यन्त चालू रही।' (पृष्ठ ५३८)। अपने कथन के समर्थन में विद्वान लेखक ने अनेक युक्तियाँ दी हैं, लेकिन दूसरे उद्धरण में आगत 'आंशिक ज्ञान की परंपरा ...” एक ऐसा वाक्य है, जो सभी प्रदत्त युक्तियों की नि:सारता को प्रकट कर देता है । क्योंकि एक तरफ तो यह कहा है कि वीर निर्वाण से ६८३ वर्ष पर्यन्त अंग ज्ञान की परंपरा प्रवर्तित रही और दूसरी तरफ यह उल्लेख करते हैं कि “उत्तरोत्तर घटता गया, तथापि आंशिक ज्ञान की परंपरा ६८३ वर्ष पर्यन्त अविच्छिन्न चलती रही" । दोनों कथनों पर गंभीरता से विचार करते हैं, तो यह स्पष्ट नहीं होता कि अंग ज्ञान की परंपरा ६८३ वर्ष तक जैसी की तैसी अविच्छिन्न, अविकल रूप में प्रवर्तित रही या आंशिक रूप में प्रवर्तित रही? यदि गणधरों के बाद ही आंशिक रूप में अंगज्ञान की परंपरा विच्छिन्न होती हुई भद्रबाहु तक आयी हो, तो उन्हें भी पूर्ण श्रुत ज्ञानी मानना भी विचारणीय हो जाता है । यदि भद्रबाहु स्वामी ही पूर्ण श्रुतज्ञानी थे और उनके पार्श्ववर्तियों और पूर्ववर्तियों श्रमणों को ज्ञान नहीं था, तो यह कैसे माना जा सकता है कि परिपाटी के क्रम में किसी एक को ही पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता था, जब कि गुरु को सभी शिष्य समान होते थे और वे बिना किसी भेद भाव के अध्ययन कराते थे। उनमें से अनेक ऐसे हो सकते हैं कि ज्ञान का कुछ अंश ग्रहण कर के अथवा कुछ निष्णात हो कर शिष्य परंपरा को अध्ययन कराते हुए ज्ञान का विस्तार करते हों । इसलिए यह कहना अतिश्योक्ति.ही माना जायेगा कि ६८३ वर्ष बाद श्रुत का पूर्णतया विच्छेद हो गया, याने समाप्त हो गया, किसी को ज्ञान रहा ही नहीं । पंडितजी की यह कल्पना बौद्धों के दीप निर्वाण की तरह ज्ञान निर्वाण को मानने से मिलती जुलती.है । क्या पंडितजी का यही अभिप्राय है? यदि मान लिया जाये कि भद्रबाह के साथ पूर्ण श्रुतज्ञान समाप्त हो गया, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि आज जो दिगंबर परंपरा में प्रमाणभूत ग्रंथ है, वे तीर्थंकर की वाणी का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी प्रमाणता का आधार क्या है ? श्वेतांबर परंपरा तो उन्हें. अंगबाह्य आगमों के वर्ग में समाविष्ट कर सकती है, लेकिन स्वयं दिगंबर परंपरा को यह निर्णय करना है कि जब भद्रबाहु स्वामी तक ही श्रुत परंपरा चली, तो उनके मान्य ग्रंथों की रचना का आधार क्या है? इसी सन्दर्भ में यह भी समझ लेना चाहिए कि भावस्स णत्थि णासो, णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। तब तीर्थंकर की वाणी ६८३ वर्ष तक ही रही और उसके बाद सर्वथा विनष्ट हो गयी, यह तो वदतो व्याघात दोषापत्ति का अवसर प्रदान करता है । अतएव हम अपने मान्य विद्वानों से यह अनुरोध करेंगे कि सांप्रदायिक व्यामोह से अतिक्रान्त हो कर असत्य का परिमार्जन करने के साथ सत्य तथ्यों को समझने का प्रयास करें और यह कहें कि अंगज्ञान की उत्तरोत्तर . (११)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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