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________________ पुरोवचनिका • अमृतमयी धारा और धर्म त्रिवेणी ____ भारतदेश 'जगद्गुरु' पद के गौरव से विभूषित माना गया है । इस गौरवपूर्ण पद की स्वीकृति में इस देश के प्राचीनतम ज्ञानराशि के अक्षय भाण्डागार का पूर्ण योगदान रहा है। यहाँ धर्म की प्रधानता को सर्वोपरि स्थान देते हुए सिद्ध तपस्वियों, महापुरुषों, महर्षियों तथा त्यागी-विरागियों ने सतत सात्विक साधना के द्वारा वैचारिक मन्थन करके सार्वभौम-सत्यरूप अमृत की उपलब्धि की और उसे चिर सुरक्षित रखने के लिए अक्षर देह प्रदान कर प्राणिमात्र के कल्याण का पथ प्रशस्त किया। इस पावन पथ पर धर्म-त्रिवेणी का प्रवाह अविरल प्रवहमान रखने वाले जैन, ब्राह्मण और बौद्ध धर्मानुयायी सुदीर्घकाल से अपने-अपने सर्वमान्य धर्म-ग्रंथों में आगम वेद तथा पिटकों को हिमालय के सर्वोच्च शिखर से निकली हुई अमृतमयी धारा का स्वरूप मानते हैं। इस पवित्रतम धर्म त्रिवेणी की धाराओं से न केवल भारतवासी ही अपितु विराट विश्व के ज्ञान-पिपासु मनीषीगण भी युगों से अमृतपान करते रहे हैं । युग बीत गये किन्तु आगमों की सत्ता इतनी सुदृढ़ जमी हुई है कि इनका आश्रय पा लेने पर सनातन-सत्यों की समष्टि को चिर-स्थिर रखनेवाला यह साहित्य मानव-मात्र को सत्य के दर्शन की प्रेरणा देता है, समुचित मार्ग का निर्देश करता है, कर्तव्याकर्तव्य का विवेक सिखाता है तथा सांसारिक प्रपञ्चों से मुक्त होकर मोक्ष पथ का.पथिक बनने के सर्वोत्तम लक्ष्य की ओर अग्रसर करता है। . आगमिक चिन्तन की विशेषता एक विशिष्ट इकाई में उत्पन्न और कालान्तर में सुसमृद्ध हुए आगमिक चिन्तन की सर्वोपरि विशेषता यह है कि यह देश, काल की परिधि का अतिक्रमण करता हुआ विश्वचिन्तन की प्रतिष्ठा को प्राप्त कर रहा है। यही कारण है कि इस चिन्तन का प्रभाव न केवल भारतवर्ष के निवासियों पर ही पड़ा, अपितु आस-पास के सभी एशियाई देशों को भी अपने प्रभाव से आकृष्ट किया। आज तो विश्व के सुसमृद्ध देशों में भी यह एशियाई संस्कृति का एक महत्वपूर्ण प्रतिनिधित्व कर रहा है। • जैन आगम विचार ___ यहाँ हम प्रस्तुत ग्रंथ के आलोक में चर्चित अनुशीलित जैन आगमों पर विचार करते हैं। वेद, आगम और बौद्ध-पिटकों की समानता में विराजमान जैन आगम आप्त-उक्ति, श्रुतज्ञान, आगम आदि विभिन्न अभिधानों से सुप्रसिद्ध हैं । इन आगमों की संख्या विस्तृत है। ये विशुद्ध रूप से भगवान महावीर की वाणी हैं, जिसे उपदेश के रूप .
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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