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विच्छेद के साथ ही पूर्व ज्ञान का विच्छेद हो गया । इनके पश्चात् नक्षत्र, यशपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस ये पाँच आचार्य एकादश अंगों के ज्ञाता हुए । इनका सम्मिलित काल २२० वर्ष माना गया। इस प्रकार भगवान महावीर निर्वाण के ५६५ वर्ष पश्चात् आचारांग को छोड़कर शेष अंगों का भी विच्छेद हो गया। इनके बाद सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य ये चार आचार्य आचारांग के धारक हुए । इनका काल ११८ वर्ष रहा । इनके पश्चात् वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष पश्चात् अंग एवं पूर्व साहित्य के ग्रन्थों के पूर्णज्ञाता आचार्यों की परम्परा समाप्त हो गई । मात्र अंग और पूर्व साहित्य एकदेश के धारक आचार्य हुए। इनके बाद आचार्य धरसेन तक अंग और पूर्व के एकदेश ज्ञाता (आंशिकज्ञाता) आचार्यों की परम्परा चली। उसके बाद पूर्व और अंग साहित्यका विच्छेद हो गया। मात्र अंग और पूर्व साहित्य एकदेश के धारक आचार्य हुए । इनके बाद आचार्य धरसेन तक अंग
और पूर्व के एकदेश ज्ञाता (आंशिकंज्ञाता) आचार्यों की परम्परा चली । उसके बाद पूर्व और अंग साहित्य का विच्छेद हो गया । मात्र अंग और पूर्व के आधार पर उनके एकदेश ज्ञाता आचार्य द्वारा निर्मित ग्रन्थ ही शेष रहे । अंग और पूर्वधरों की यह सूची हमने हरिवंशपुराण के आधार पर दी है। अन्य ग्रन्थों एवं श्रवण-बेलगोला के कुछ अभिलेखों में भी यह सूची दी गयी है किन्तु इन सभी सूचियों में कहीं नामों में और कहीं क्रम में अन्तर है, जिससे इनकी प्रामाणिकता संदेहास्पद बन जाती. है। किन्तु जो कुछ साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध हैं उन्हें ही आधार बनाना होगा अन्य कोई विकल्प भी नहीं है । यद्यपि इन साक्ष्यों में भी एक भी साक्ष्य ऐसा नहीं है, जो सातवीं शती से पूर्व का हो । इन समस्त विवरणों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि दिगम्बर परम्परा में श्रुत विच्छेद की इस चर्चा का प्रारम्भ लगभग छठी-सातवीं शताब्दी में हुआ और उसमें अंग एवं पूर्व साहित्य के ग्रन्थों के ज्ञाता आचार्यों के विच्छेद की.चर्चा हुई है । श्वेताम्बर परम्परा में पूर्व ज्ञान के विच्छेद की चर्चा तो नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि आदि आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में हुई है। किन्तु अंग-आगमों के विच्छेद की चर्चा मात्र तित्थोगालिक प्रकीर्णक के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं मिलती है। तित्थोगालिय प्रकीर्णक को देखने से लगता है कि यह ग्रन्थ लगभग छठी-सातवीं शताब्दी में निर्मित हुआ है । इसका रचना काल और कुछ विषय-वस्तु भी तिलोयपण्णत्ति से समरूप ही है। प्रकीर्णक का उल्लेख, नन्दीसूत्र की कालिक और उत्कालिक ग्रन्थों की सूची में नहीं है किन्तु व्यवहारभाष्य (१०/७०४) में इसका उल्लेख हुआ है । व्यवहारभाष्य स्पष्टतः सातवीं शताब्दी शती के पूर्व अर्थात् लगभग ईस्वी सन् की छठीं शताब्दी में निर्मित हुआ होगा। यही काल तिलोयपण्णत्ति का भी है। इन दोनों ग्रन्थों में ही सर्वप्रथम श्रुत के विच्छेद की चर्चा है । तिथ्योगालिय में तीर्थकरों की माताओं के चौदह स्वप्न, स्त्री-मुक्ति तथा दस आश्चर्यों का उल्लेख से एवं नन्दीसुत्र, अनुयोगद्वार तथा आवश्यकनियुक्ति से इसमें अनेक गाथाएं अवतरित किये जाने से यही सिद्ध होता है कि यह श्वेताम्बर ग्रन्थ है । श्वेताम्बर परम्परा में प्रकीर्णक रूप में इसकी आज भी मान्यता है । इस ग्रन्थ की गाथा ८०७ से ८५७ तक में न केवल पूर्वो के विच्छेद की चर्चा है अपितु अंग साहित्य के विच्छेद की भी चर्चा है।
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