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• क्या यापनीय आगम वर्तमान श्वेताम्बर आगमों से भिन्न थे? ।
इस प्रसंग में यह विचारणीय है कि यापनीयों के ये आगम कौन से थे? क्या वे इन नामों से उपलब्ध श्वेताम्बर परम्परा के आगमों से भिन्न थे या यही थे? हमारे कुछ दिगम्बर विद्वानों ने यह कहने का अतिसाहस भी किया है कि ये आगम वर्तमान श्वेताम्बर आगमों से सर्वथा भित्र थे। पं. कैलाशचन्द्रजी ने ऐसा ही अनुमान किया है, वे लिखते हैं “जैन परम्परा में दिगम्बर और श्वेताम्बर के समान एक यापनीय संघ भी था यह संघ यद्यपि नग्नता का पक्षपाती था तथापि श्वेताम्बरीय आगमों को मानता था। इस संघ के आचार्य अपराजितसूरि की संस्कृत टीका भगवतीआराधना नामक प्राचीन ग्रन्थ पर है । जो मुद्रित भी हो चुकी है। उसमें नग्नता के समर्थन में अपराजितसूरि ने आगम ग्रन्थों से अनेक उद्धरण दिये हैं, जिनमें से अनेक उद्धरण वर्तमान आगमों में नहीं मिलते । आदरणीय पं. जी ने यहाँ जो ‘अनेक' शब्द का प्रयोग किया है वह प्रान्ति उत्पन्न करता है । मैनें अपराजितसूरि की टीका में उद्धृत आगमिक सन्दर्भो की श्वेताम्बर आगमों से तुलना करने पर स्पष्ट रूप से यह पाया है कि लगभग ९० प्रतिशत सन्दों में आगमों की अर्धमागधी प्राकृत पर शौरसेनी प्राकृत के प्रभाव के फलस्वरूप हुए आंशिक पाठभेद को छोड़कर कोई अन्तर नहीं है । जहाँ किंचित् पाठभेद है वहाँ भी अर्थ-भेद नहीं है । आदरणीय पंडितजी ने इस ग्रन्थ में भगवतीआराधना की विजयोदया टीका से आचारांग में नहीं मिलता है । उनके द्वारा प्रस्तुत वह उद्धरण निम्न है
तथा चोक्तमाचारङ्गे-सुदं * आउस्सत्तो* भगवदा एवमक्खादा इह खलु संयमाभिमुख दुविहा इत्थी पुरिसा जादा हवंति । तं जहा सव्वसमण्णगदे णो सव्वसमण्णागदे चेव। तत्य जे सव्वसमण्णागदे थिणा * हत्थपाणीपादे सबिंदिय समण्णागदे तस्स णं णो कप्पदि एगमवि वत्य धारिउं एवं परिहउं एवं अण्णत्थ एगेण पडिलेहगेण इति।।
निश्चय ही उपर्युक्त सन्दर्भ आचारांग में इसी रूप में शब्दश: नहीं है किन्तु सव्वसमत्रागय' नामक पद और उक्त कथन का भाव आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अष्टम अध्ययन में आज भी सुरक्षित है । अतःइस आधार पर यह कल्पना करना अनुचित होगा कि यापनीय परम्परा का आचारांग, वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध आचारांग से भिन्न था। क्योंकि अपराजितसूरि द्वारा उद्धृत आचारांग के अन्य सन्दर्भ आज भी श्वेताम्बर परम्परा के इसी आचारांग में उपलब्ध हैं । अपराजित ने आचारांग के लोकविचय' नामक द्वितीय अध्ययन के पंचम उद्देशक के उल्लेखपूर्वक जो उद्धरण दिया है, वह आज भी उसी अध्याय के उसी उद्देशक में उपलब्ध है। इसी प्रकार उसमें “अहं पुण एवं जाणेज्ज उपातिकते हेमंते. ठविज्ज” जो यह पाठ आचारांग से उद्धृत है- वह भी वर्तमान आचारांग के अष्टम अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में है। उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग, कल्प आदि के सन्दों की भी लगभग यही स्थिति है । अब हम उत्तराध्ययन के सन्दर्भो परविचार करेंगे । आदरणीय पंडितजी ने जैन साहित्य की पूर्वपीठिका में अपराजित की भगवतीआराधना की टीका की निम्न दो गाथाएँ उद्धृत की हैं
परिचतेसु वत्सुण पुणो चेलपादिए। अचेलपवरे भिक्खू जिणरूपधरे सदा ।।
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