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________________ सत्कार आदि की तुष्णा यदि रहती है तो उसे भी झटक देना चाहिए और इसके बाद भी यदि मोह के कुछ तन्तु शेष रहें तो उनका भी भली प्रकार से निकंदन करना चाहिए। ऐसा करते समय यदि ऐसी शारीरिक स्थिति उत्पन्न हो जाए कि संयम की रक्षा ही नहीं हो सके अथवा अनुकूल प्रतिकूल उपसर्गों के कारण असंयम की स्थिति उत्पन्न हो जाए तो जीवन का मोह छोड़कर शरीर का त्याग करने में भी किसी प्रकार का विचार नहीं करना चाहिए। निग्रंथ साधना की इसी चिन्तनात्मक भूमिका को सबल बनाने के लिए दूसरे श्रुतस्कंध में आचार प्रधान प्रवृत्तिमूलक विधि विधानों का मन, वचन, काय की प्रवृत्ति निवृत्ति का, पंच महाव्रतों एवं उनकी भावनाओं का संयम की एकविधता, द्विविधता आदि का व चातुर्याम पंचयाम, रात्रिभोजन त्याग इत्यादि का परिचय दिया गया है। ऊपर निग्रंथ साधना की जिन मूलभूत बातों का उल्लेख किया गया है, उनका वर्णन अन्य अंग आगमों में भी किसी न किसी रूप में है और अंग बाह्य आगमों में भी उल्लेख किया गया है । पूर्ण निग्रंथ तो इसकी साधना समग्र रूप से करते हैं, लेकिन जो वैसा करने में सक्षम नहीं है अथवा अभ्यास करने वाले हैं, उनके लिए अणुव्रत के रूप में साधना मार्ग बतलाया है । दोनों प्रकार की साधना में सर्व (पूर्ण) और एक देश (आंशिक) की अपेक्षा से भेद किया जा सकता है, लेकिन साधना मार्ग एक ही है। उसमें अंतर नहीं है। ___ इस निग्रंथ साधना को श्रममणाचार या साध्वाचार भी कहते हैं। * व्रत नियम पालन की दुष्करताः ___निर्ग्रन्थ साधना के व्रत और नियमों का पालन परम् दुष्कर बताया गया है और उस दुष्करता को उपमाओं आदि से स्पष्ट किया गया है कि जैसे गंगा के प्रति स्रोत को पार करना, समुद्र को भुजाओं से तैरना, बालू के ग्रास का भक्षण करना, तलवार की धार पर चलना, लोहे के चने चबाना, जलती आग की शिखा को पकड़ना और मेरू पर्वत को तराजू से तौलना महादुष्कर है, वैसे ही श्रमण धर्म का आचरण भी महादुष्कर है । इस साधना के पालन में सर्प की भाँति एकान्त दृष्टि और छुरे की भाँति एकान्त धार रखते हुए यत्नपूर्वक आचरण करना पड़ता है । इसीलिए कहा गया है कि निर्ग्रन्थ प्रवचन में नपुंसक, कायर और कापुरुषों का एवं इहलौकिक इच्छाओं में आसक्त, रत और परलोक के प्रति उदासीन लोगों का काम नहीं है। इसका पालन तो कोई धीर-वीर, दृढ़ मन और पुरुषार्थी पुरुष ही कर सकते हैं। . निर्ग्रन्थ श्रमण की तपस्या अत्यन्त विकट होती है । इसीलिए आगमों में उसके लिए घोर तपस्वी विशेषण का प्रयोग किया गया है । प्रत्येक प्रवृत्ति में तप की मुख्यता (२२३)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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