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(न्यासापहार-नासावहार) । आवश्यकता पड़ने पर लोग उधार लेते थे। लेन-देन और साहूकारी ईमानदारी का पेशा समझा जाता था। रुपया उधार लेते समय रुक्के-पर्चे लिखने का रिवाज था। लोग झूठे रक्के-पर्चे भी लिख दिया करते थे। इसे कुडलेह-कूटलेख कहा गया है। यदि कोई वणिक कर्ज चकाने में असमर्थ होता. तो उसके घर पर एक मैली-कुचैली झंडी लगा दी जाती थी। किसी को दिवालिया घोषित करने की उस काल में यह प्रथा थी। * व्यापारिक संगठन
___यद्यपि उन दिनों में उद्योग धंधे बहुत कमजोर थे और लोगों की क्रयशक्ति वस्तुओं के पारस्परिक विनिमय पर आधारित थी, फिर भी व्यापारिक संगठन मौजूद थे। सुवर्णकार, चित्रकार और रजक (धोबी) जैसे महत्वपूर्ण कारीगरों के संगठन थे। उन्हें श्रेणी कहा जाता था। आगम साहित्य में इस प्रकार की अठारह श्रेणियों का उल्लेख है, लेकिन इनके कर्त्तव्य, विधान, संगठन के उद्देश्य आदि के बारे में विशेष जानकारी नहीं मिलती।
श्रेणी अपने सदस्यों के हितों की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहती थी। उनके प्रमुख सदस्य राजा के निकट पहुँचकर न्याय की माँग करते थे। दरअसल श्रेणी एक प्रकार का ऐसा संगठन था, जिसमें एक या विभिन्न जाति के लोग होते थे, लेकिन उनका व्यापार धंधा एक ही होता था। साथ ही ये श्रेणियाँ राज्य के जन समुदाय का प्रतिनिधित्व करती थी और इससे राजा को उनके विचार और उनकी भावनाओं को सम्मानित करने के लिए बाध्य होना पड़ता था।
शिल्पकारों की श्रेणियों की भाँति व्यापारियों की भी श्रेणियाँ थीं। उनमें नदी या समुद्र से यात्रा करने वाले व्यापारी और सार्थवाह शामिल थे। ऐसे कितने ही सार्थों के उल्लेख मिलते हैं, जो विविध माल- असबाब के साथ एक देश से दूसरे देश में जाते-आते थे। श्रेष्ठी अठारह श्रेणियों-प्रश्रेणियों का मुखिया माना जाता था।
इस प्रकार आगम साहित्य में प्राचीन भारत की अर्थोपार्जन व्यवस्था से संबंधित विविध बातों की जानकारी उपलब्ध होती है । अब आगे के अंतिम प्रकरण में आगम साहित्य में तत्कालीन धार्मिक व्यवस्था का जो रूप उपलब्ध होता है, उसके बारे में विचार किया जाएगा।
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