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________________ राजा की इच्छा और आज्ञा में प्रजा के जीवन, और धन-संपत्ति की सुरक्षा निर्भर होने पर भी चोर, डाकू, धूर्त अपराध करने से बाज नहीं आते थे। चोर अपने साथियों के साथ चोर पल्लियों में रहा करते थे। वे अपने सरदार की देखरेख में लूटमार, डकैती और हत्याएँ करके प्रजा को सन्त्रस्त करते थे। सरदार इन्हें चोर मंत्र, चोर विद्या, चोर माया आदि की शिक्षा दे कर निष्णात बनाते थे। ये लोग नगर के प्रवेश मार्गों, द्यूत गृह, पानागार, वेश्यालय, चौराहे, देवकुल, प्याऊ, हाटबाजार, नगर के उद्यान, पुष्करिणी, बावड़ी, पर्व आदि सार्वजनिक स्थानों पर घूमते रहते थे और राज्योपद्रव होने पर अथवा किसी उत्सव पर्व आदि के अवसर पर अथवा निर्जन स्थान पर असावधानी की स्थिति में लूट खसोट और अपहरण करके चले जाते थे। फिरौती के रूप में धन नहीं मिलने पर ये लोग हत्या भी कर देते थे। ये लोग चोरी के माल का पता लग जाने के भय से अपनी पत्नी, पुत्र, पुत्री आदि प्रिय कुटुंबी जनों की हत्या करने में भी नहीं झिझकते थे। आगम साहित्य में चोरों के अनेक प्रकारों का उल्लेख मिलता है। जैसेआमोष लोमहर (जान से मार कर सर्वस्व लूटने वाले), ग्रंथिभेदक (जेब कतरा), तस्कर, आक्रान्त प्राकृतिक, ग्रामस्तेन, देशस्तेन, अन्तरस्तेन, अध्वानस्तेन, खेतों को काटने वाले आदि चोर विकाल में गमन करते थे और किंचित् दग्ध मानव शव अथवा जंगली जानवरों का मांस या कन्दमूल खाते थे। वर्तमान की तरह उस समय भी चोरों में विश्वास की भावना पैदा कर, उनकी कुशलक्षेम पूछ कर, उन्हें संकेत देकर गिरफ्तारी से बचाने में मदद कर, चोरों के जाने वाले मार्ग से उल्टा पता बता कर तथा उन्हें स्थान, आसन, भोजन, तेल, जल, अग्नि, रस्सी, अस्त्र-शस्त्र आदि दे कर चोरों का हौंसला बढ़ाने वाले भी थे। ये लोग चोरी का माल खरीदने बेचने का धंधा करते थे। जनता उन्हें अच्छी नजर से नहीं देखती थी, फिर भी वे शान शौकत के साथ प्रजा के बीच रहते थे। ___चोर आसानी से पकड़ में नहीं आते थे। राजा की सेना तक उनसे हार कर भाग जाती थी। लेकिन साम, दाम अथवा भेद से जब उन्हें पकड़ लिया जाता था, तब उन्हें भंयकर दंड दिया जाता था। राजा चोरों को जिंदा लोह के कुंभ में बन्द कर देते थे और उनके हाथ तक कटवा देते थे। उन्हें शूली पर चढ़ा देना तो मामूली सी बात थी। राज कर्मचारी चोरों को वस्त्र युगल पहना कर उसके गले में कनेर के फूलों की माला डालते थे और उसके शरीर पर तेल चुपड़वा कर उस पर भस्म लगाते थे। फिर उन्हें राजमार्ग से नगर के चौराहों में घुमाया जाता था। उस समय उन्हें घूसों, डंडों, लातों और कोड़ों से पीटा जाता था। उनके होंठ, नाक और कान काट लिये जाते थे। रक्त से लिप्त मांस उन्हें खिलाया जाता था तथा विष्टा भी दिखायी जाती थी। फिर खंड पटह से उनके अपराधों की घोषणा की जाती थी। (१९६)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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