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+ राजा का एक छत्र राज . . तत्कालीन समय में राजा का राज एक छत्र होता था। उसकी आज्ञा कानून थी। जो भी राजा की आज्ञा का उल्लंघन करता था, वह उसके कोप से नहीं बच पाता था। राजा विविध प्रकार से प्रजा को कष्ट पहँचाते थे। परिषदों का अपमान करने वालों के लिए भिन्न-भिन्न दंड व्यवस्था का विधान था। यदि कोई ऋषि परिषद् का अपमान करता, तो उसे केवल अमनोज्ञ वचन कह कर छोड़ दिया जाता था । ब्राह्मण परिषद् का अपमान करने वाले के मस्तक पर कुंडी का चिह्न बनाकर उसे निर्वासित कर दिया जाता था। यदि कोई गृहपति परिषद् का अपमान करता, तो उसके हाथ-पैर काटकर उसे शूली पर एक झटके से मार दिया जाता था और यदि कोई राजा की आज्ञा की अवहेलना करता, तो उसे तेज खार में डाल दिया जाता था। जितनी देर गाय दूहने में लगती, उतनी देर में उसका कंकाल मात्र शेष रह जाता था । .
राजा लोग बड़े शक्की होते थे। किसी पर जरा सी भी शक हो जाने पर उसके प्राण लेकर ही रहते थे। आज्ञा का उल्लंघन करने वालों अथवा राजा के प्रति असम्मान-अनादर प्रकट करने वालों के गाँवो में आग भी लगा दी जाती थी। लोगों के अंग भंग करके उन्हें निर्वासित कर दिया जाता था। अपराधियों को अपना निवास स्थान छोड़ कर चांडालों के मोहल्ले में रहने का भी दंड दिया जाता था। * अपराध और दंड
जैन साहित्य का आलोड़न करने पर ऐसा संकेत मिलता है कि प्रारम्भ में सतयुग जैसी स्थिति थी। कहीं पर भी किसी भी प्रकार का झगड़ा आदि नहीं था। कुलकरों की व्यवस्था के अन्तर्गत सभी प्रकार के कार्य सुचारू रूप से चल रहे थे। आवश्यकताओं की पूर्ति कल्पवृक्षों से हो जाया करती थी। समय के प्रवाह के साथ-साथ कल्पवृक्षों की क्षीणता बढ़ती गई जिसके परिणामस्वरूप कल्पवृक्षों पर युगलों का ममत्व बढ़ने लगा। फलस्वरूप कलह और वैमनस्य की भावना का जन्म हुआ इसके साथ ही अपराधों का भी जन्म हुआ। समाज में अव्यवस्था फैलने लगी। जिससे जनजीवन त्रस्त हो उठा। तब अपराध वृत्ति को दबाने के लिए उपाय खोजे जाने लगे। उसी के परिणाम स्वरूप दण्डनीति का प्रादुर्भाव हुआ । इसके पूर्व किसी प्रकार की कोई दण्डनीति नहीं थी, क्योंकि उसकी आवश्यकता ही नहीं थी। आवश्यकता आविष्कार की जननी है; के अनुसार दण्डनीति का जन्म हुआ। जैन साहित्य के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि सर्वप्रथम हाकार, माकार और धिक्कारनीति का प्रचलन हुआ। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार हैं१. दण्ड: अपराधिनामनुशासनस्तत्र तस्य वा स एव वा नीति: तयो दण्डनीति । स्थानांगवृत्ति प. ३९९-४०१ ।
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