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उत्तराध्ययन सूत्र -
जैन आचार-विचार तत्वज्ञान और सिद्धांतों का परिचय प्राप्त करने की दृष्टि से उत्तराध्ययन सूत्र का विशेष महत्व है । इसीलिए अतीत में अनेक आचार्यों ने इस पद पर व्याख्या ग्रंथ लिखे हैं और वर्तमान में भी अनेक विद्वानों द्वारा लिखे जा रहे हैं ।
उत्तराध्ययन सूत्र पर लिखित व्याख्या ग्रंथों में आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) कृत उत्तराध्ययन निर्युक्ति पहला ग्रंथ है । इसमें छह सौ सात गाथाएँ हैं । अन्य नियुक्तियों की तरह इसमें भी अनेक पारिभाषिक शब्दों का निक्षेप पद्धति से व्याख्यान किया गया है एवं अनेक शब्दों के विविध पर्यायवाची भी दिए गए हैं। सर्वप्रथम उत्तराध्ययन शब्द की व्याख्या में उत्तर पद का व्याख्यान पंद्रह प्रकार के निक्षेपों से किया है। इसी प्रकार प्रत्येक अध्ययन में आगत विशेष पदों का निक्षेप पद्धति से विवेचन किया है एवं यथाप्रसंग अपने कथन को सरल बनाने के लिए शिक्षाप्रद कथानक भी दिए हैं । उत्तराध्ययन सूत्र पर भी भाष्य लिखा गया है, लेकिन वह इतना कृशकाय है कि उसमें कुल ४५ गाथाएँ हैं ।
चूर्णिकार जिनदास गणि महत्तर ने उत्तराध्ययन चूर्णि लिखी है, जिसकी भाषा संस्कृत मिश्रित प्राकृत है एवं नियुक्ति पर आधारित है। इसमें संयोग, पुद्गलबंध, संस्थान, विनय, क्रोधवारण, अनुशासन, परीषह, धर्मविज्ञान, मरण, निर्ग्रथपंचक, · भयसप्तक, ज्ञान, क्रिया, एकान्त आदि विषयों पर सोदाहरण प्रकाश डाला है । स्त्रीपरीषह के विवेचन के प्रसंग में नारी स्वभाव की कटु आलोचना की है । चूर्णिकार ने अंत में अपना परिचय दिया है ।
वादीवेता शांतिसूर ने 'शिष्यहितावृत्ति' नाम से उत्तराध्ययन सूत्र पर संस्कृत टीका लिखी है । भाषाशैली, विषय, प्रस्तुतिकरण आदि सभी दृष्टियों से टीका महत्वपूर्ण है। इसमें मूल एवं नियुक्ति दोनों का व्याख्यान हैं। बीच-बीच में विशेषावश्यक आदि भाष्य की गाथाएँ भी उद्धृत की हैं तथा नए विवेचन के प्रसंग में सिद्धसेन की गाथाओं का भी आश्रय लिया है एवं उन्हें उद्धृत किया है । प्रसंगानुसार अन्यान्य ग्रंथों के अवतरण भी लिए हैं । वृत्ति में प्राकृत कथानकों एवं उद्धरणों की बहुलता होने से इसका पाइय टीका नाम भी प्रसिद्ध है । इस वृत्ति का ग्रंथमान १८००० श्लोक प्रमाण है ।
नेमिचंद्रसूरि ने भी वि.स. १९२९ में 'उत्तराध्ययन सुखबोधावृत्ति' नामक संस्कृत टीका ग्रंथ लिखा है । यह टीका शांतिसूरि रचित टीका के आधार से बनाई गई है, लेकिन सरल व सुबोध होने से उल्लेखनीय है । यथास्थान अनेक प्राकृत आख्यान उद्धृत किए हैं। प्रारंभ में तीर्थंकरों, सिद्धों, साधुओं एवं श्रुत देवता को
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