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________________ दृष्टिगोचर होता है । अत: यह कहना कठिन है कि छेदसूत्र शब्द का संबंध सिर्फ छेद नामक प्रायश्चित से है अथवा और किसी से भी । दशाश्रुतस्कंध, महानिशीथ और जीतकल्प को छोड़ कर शेष तीन सूत्रों के विषय वर्णन में कोई सुनिश्चित योजना दृष्टिगोचरू नहीं होती । कोई कोई उद्देश्य इसका अपवाद अवश्य है । सामान्यतः श्रमण जीवन से संबंधित किसी भी विषय का किसी भी उद्देश में समावेश कर दिया गया हैं । निशीथ में विभिन्न प्रायश्चितों की दृष्टि से उद्देशों में विभाजन अवश्य है, किन्तु तत्संबंध दोषों के विभाजन में कोई निश्चित योजना दिखाई नहीं देती । 1 उपर्युक्त छह छेद सूत्रों में से दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ को तो समस्त श्वेतांबर परंपराएं स्वीकार करती है, लेकिन महानिशीथ और जीतकल्प को सिर्फ श्वेतांबर मूर्तिपूजक परंपरा मान्य करती है । इन्हें स्थानकवासी परंपरा मान्य नहीं करती । इस मान्य न करने का कारण क्या है ? इसके कारण की मीमांसा करके सर्व मान्य छेद सूत्रों का संक्षेप में परिचय प्रस्तुत करते हैं। शेष दो का यथास्थान अन्यत्र परिचय दे रहे हैं । १. दशाश्रुतस्कंध - प्रस्तुतं छेद सूत्र में जैनाचार से संबंधित दस अध्ययन होने से इसे दशाश्रुतस्कंध कहते हैं । इसका अपर नाम आचार दशा है ।' यह मुख्यतया गद्य में लिखाया है और भाषा आर्ष प्राकृत है। इस छेद सूत्र के प्रथम अध्ययन में बीस असमाधि स्थानों का वर्णन है । समवायांग सूत्र के बीसवे स्थान में भी यह वर्णन है, किन्तु अन्तर केवल इतना है कि समषायांग में 'बीस असमाहिठाणा पण्णत्ती' इतना कह कर असमाधि स्थानों का वर्णन प्रारंभ कर दिया है। लेकिन इस सूत्र में 'सूयं मे आउ...' इत्यादि पाठ और जोड़ दिया है । दूसरे में इक्कीस प्रकार के शवल दोषों का और तीसरे में तैंतीस प्रकार की शतनाओं का वर्णन है । समवायांग में भी इसी प्रकार का वर्णन है, लेकिन भेद केवल प्रारंभिक वाक्यों में ही है। चौथे अध्ययन में आठ प्रकार की गणि संपदा का विस्तृत वर्णन है । स्थानांग में इन आठ संपदाओं का सिर्फ नाम निर्देश है । पाँचवें अध्ययन में दस चित्त समाधियों का वर्णन है । इसमें से केवल उपोद्घात अंश संक्षिप्त रूप में औपपातिक सूत्र में उपलब्ध है । समवायांग के दसवें स्थान में भी दस चित्त समाधियों का पाठ गद्य रूप में मिलता है। छठे में श्रमणोपासक श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं-पडिमाओं का वर्णन है । समवायांग के ग्यारहवें स्थान में इसका सूत्ररूप १. स्थानांग १०/७५५ २. चित्त की मोक्ष मार्गाभिमुखी प्रवृत्ति को समाधि और उससे विपरीत को असमाधि कहते हैं । ३. व्रत आदि से संबंधित विविध विचित्र दोषों का नाम शवल दोष है- शवलं कर्तुर चित्रम् । (९३)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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