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________________ रूप सत्य, व्यवहार सत्य, भावसत्य, योग सत्य और उपमा सत्य । भाषा के संस्कृत, प्राकृत आदि भेद हैं। एक वचन, द्विवचन आदि की अपेक्षा वचन के सोलह भेद हैं तथा बोलते समय व्याकरण के नियमों तथा उच्चारण की शुद्धता का ध्यान रखने का निर्देश दिया है । सत्य की दशा के लिए पाँच भावनाओं का निरूपण करके बताया गया है कि सत्य का पालन करने से मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। ___अचौर्य(अस्तेय) नामक तीसरे अध्ययन में अस्तेय व्रत के स्वरूप का निरूपण है, जिसमें अस्तेय की स्थूल से लेकर सूक्ष्तम व्याख्या की गई है । अपने स्वरूप को छिपाकर अन्य स्वरूप को प्रकट करने से अस्तेय व्रत भंग होता है, इसलिए इसके तप चोर, वय चोर, रूप चोर, कुलचोर, आचार चोर और भाव चोर ये छह भेद बताए हैं । इस व्रत की रक्षा के लिए पाँच भावनाएँ बतलाई हैं। इस व्रत का आराधक मोक्षसुख का अधिकारी बनता है। चौथे अध्ययन का नाम ब्रह्मचर्य है। इस अध्ययन में ब्रह्मचर्य निरूपण, तत्संबंधी अनुष्ठानों का वर्णन एवं उसकी साधना करने वालों का निरूपण किया है। साथ ही अनाचरण की दृष्टि से ब्रह्मचर्य विरोधी प्रवृत्तियों का भी उल्लेख है । संसार के सर्वश्रेष्ठ पदार्थों के साथ तुलना करके इसे बत्तीस उपमाएँ दी गई हैं तथा इस व्रत की रक्षा के लिए पाँच भावनाएं बतलाई गई हैं। पाँचवें अपरिग्रह अध्ययन में अपरिग्रहवृत्ति तद्विषयक अनुष्ठानों एवं अपरिग्रह व्रतधारियों के स्वरूप का निरूपण है. । प्रसंगवशात साध्वाचार से संबंधित कतिपय नियमों का भी उल्लेख है । इस व्रत की रक्षा के लिए पाँच भावनाएँ बतलाई • गई हैं। · द्वितीय श्रुतस्कंध का उपसंहार करते हुए बतलाया है कि उपर्युक्त पाँच संवर द्वारों की सम्यक् प्रकारेण आराधना करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। * ११. विपाक सूत्र यह उपलब्ध अंग आगमों में अंतिम है । इसके विषय के संबंध में दोनों जैन परंपराएँ एकमत है । दिगंबर परंपरा के तत्वार्थ राजवार्तिक, धवला, जय धवला और अंगपण्णत्ति में बताया है कि इसमें दुःख-सुख के विपाक, परिणाम का वर्णन है । श्वेताम्बर परंपरा के समवायांग तथा नंदी सूत्र में भी इसी प्रकार के विपाक के विषय का परिचय दिया गया है । इस प्रकार विपाक सूत्र के विषयों के बारे में दोनों परंपराओं में कोई वैषम्य नहीं है । प्रारंभ में भगवान महावीर के शिष्य सुधर्मास्वामी एवं उनके शिष्य जंबूस्वामी का विस्तृत परिचय है । इसके दो श्रुतस्कंध है-१. दुःख विपाक (७३)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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