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________________ चतुर्थ अध्ययन प्रत्याख्यान क्रिया है। प्रत्याख्यान का अर्थ है अहिंसा आदि मूल गुणों एवं सामायिक आदि उत्तर गुणों के आचरण में बाधक प्रवृत्तियों का यथाशक्ति त्याग करना । इस अध्ययन में इस प्रकार की प्रत्याख्या क्रिया के संबंध में निरूपण किया गया है । निरवद्य प्रत्याख्यान क्रिया आत्मशुद्धि के लिए साधक है और इसके विपरीत अप्रत्याख्यान क्रिया सावद्य है । वह आत्मशुद्धि के लिए बाधक है । प्रत्याख्यान न करने वाला असंयत, अविरत, पाप क्रिया होने से सतत् कर्मबंध करता रहता है, क्योंकि अविरत की अमर्यादित मनोवृत्ति होने से उसके पाप के समस्त द्वार खुले रहते हैं । इस कारण उसे सभी प्रकार के पाप बंधन की संभावना रहती है । अतः प्रत्याख्यान क्रिया की आवश्यकता है । इस अध्ययन का यही सारांश है। ___पाँचवें अध्ययन का नाम आचारश्रुत या अनगार श्रुत है । इसमें अनाचारों को त्यागने का उपदेश है.। 'लोक नहीं है । अलोक नहीं है । जीव नहीं है। अजीव नहीं है। धर्म नहीं है। अधर्म नहीं है । इसी प्रकार बंध, मोक्ष, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, क्रिया, अक्रिया, वेदना, निर्जरा, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, संसार, देव, देवी, सिद्धि, असिद्धि, साधु, असाधु, कल्याण, अकल्याण आदि नहीं है।'-इत्यादि मान्यताएँ अनाचरणीय है । अतः लोकादि के अस्तित्व पर श्रद्धा रखने एवं तदनुरूप आचरण करने का उपदेश प्रस्तुत अध्ययन में दिया गया है। अनगार के भाषा प्रयोग : के संबंध में भी कुछ संकेत है। ____ 'आर्द्रकीय' नामक छठा अध्ययन पद्य में है। इस अध्ययन में आर्द्रक मुनि और गोशालक के अनुयायी भिक्षुओं, बौद्ध भिक्षुओं एवं वैदिक त्रिदण्डी एकदण्डी .(ब्रह्मवती) और हस्तितापसों के साथ हुए वाद-विवाद का वर्णन है । यह अध्ययन पद्यमय है और इसमें पचपन गाथाएँ हैं। - सातवें अध्ययन का नाम नालंदीय है । यह सूत्र कृतांग का अंतिम अध्ययन है । इसमें भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी श्रमण उदयपेढाल पुत्त और गौतम गणधर के बीच हुए संवाद एवं उनका महावीर शासन स्वीकार करने का वर्णन है। श्रमण उदय पेदालं पुत्त ने श्रावक के प्रत्याख्यान में त्रस के बजाय त्रसभूत पद रखने की जिज्ञासा व्यक्त की थी। उसका गौतम गणधर ने समाधान करते हुए कहा था कि भगवान महावीर के अनुयायी श्रमण द्वारा श्रावक प्रत्याख्यान के लिए किया जाने वाला त्रस शब्द का प्रयोग युक्तिसंगत है, क्योंकि जिस जीव के त्रस नाम कर्म एवं त्रस आयुष्य कर्म का उदय हो, उसी को त्रस कहते हैं । इस प्रकार के उदय का संबंध वर्तमान से है, न कि भूत या भविष्य से । इसी संदर्भ में और भी प्रश्नोत्तर हुए। अंत में संयुक्तिक समाधान से संतुष्ट होकर उन्होंने भगवान महावीर की परंपरा को स्वीकार कर लिया। इसमें कुछ श्रावकाचार का भी परिचय मिल जाता है । (५७)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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