________________
अध्याय ५
अंग आगमों का आन्तर परिचय
अंग आगमों के बाह्य परिचय के संदर्भ में अंगों के नाम, उनका पद परिमाण, क्रमशैली, नामों का अर्थ, विषय विवेचन की पद्धति इत्यादि का परिचय कराया गया है । लेकिन इतने मात्र से ही उनके महत्व का बोध नहीं होता । अतः उनके आंतर परिचय को शास्त्रीय दृष्टिकोण से उपस्थित करते हैं ।
अंग आगमों को श्वेताम्बर और दिगंबर दोनों जैन परंपराएँ मानती हैं। दोनों ने निर्दिष्ट अंगों के विषयों का उल्लेख किया है। उनका सारांश नीचे लिखे अनुसार है
1
* १. आचारांग
अंग आगमों में आचारांग पहला आगम है । दिगंबर परंपरा के तत्त्वार्थ राजवार्तिक, धवला, जय धवला, गोम्मटसार जीवकाण्ड, अंग पण्णत्ति आदि ग्रंथों में बताया गया है कि आचारांग में मनशुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, भिक्षा शुद्धि, इर्या शुद्धि, उत्सर्ग शुद्धि शयनासन शुद्धि तथा विनय शुद्धि इन आठ प्रकार की शुद्धियों का वर्णन किया गया है । इसके अतिरिक्त उन ग्रंथों में आचारांग के श्रुत स्कंध, अध्ययन आदि के विषय में कोई उल्लेख नहीं मिलता । पद परिमाण संख्या का उल्लेख अवश्य मिलता है । वह पूर्व में बतला आए हैं ।
आचारांग के विषय का श्वेताम्बर परंपरा के समवायांग और नंदीसूत्र में वर्णन किया गया है । 'समवायांग सूत्र में बताया है कि श्रमण संबंधी आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, स्थान, गमन, चंक्रमण, प्रमाण, योग योजना, भाषा, समिति, गुप्ति शैया, उपधि, आहार पानी संबंधी उद्गम, उत्पाद, एषणा, विशुद्धि एवं शुद्धा शुद्ध ग्रहण, व्रत, नियम, तप, उपघात, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य इन पाँच आचार विषयक सुप्रशस्त विवेचन आचारांग में किया गया है
!
नंदीसूत्र में भी इसी के समकक्ष वर्णन है कि आचारांग में बाह्य आभ्यन्तर परिग्रह से रहित श्रमण-निर्ग्रथों के आचार गोचर (भिक्षा ग्रहण करने की विधि), विनय, विनय का फल, ग्रहण और आसेवन रूप शिक्षा, भाषा, अभाषा, चरण करण (व्रतादि, पिण्डविशुद्धि आदि), यात्रा (संयम यात्रा के निर्वाह के लिए परिमित आहार ग्रहण करना), विविध अभिग्रह विषयक वृत्तियों, ज्ञानाचार आदि पाँच प्रकार के आचार का प्रतिपादन किया गया है ।
(३९)