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नय दूसरे नयके साथ अपेक्षा संबंध रखता है । उसीको सापेक्षभाव कहते है । सापेक्षभाव के अभाव में नय सु-नय न रहते हुए नयाभास हो जाता है ।
अपनी दृष्टि का प्राधान्य रखते हुए भी विरोधी दृष्टि का स्वीकार करना, उसको नकार न देना - सापेक्षभाव है । यह सापेक्षभाव ही नयवाद का हार्द है । सापेक्षता ही संवादिता की जनेता है । रागद्वेष के विलय स्वरूप माध्यस्थभाव की संप्राप्ति संवादिता से होती है । जिसमें मुख्य हेतु सापेक्ष दृष्टिकोण है । हरेक दर्शन यदि प्रमाण के साथ नय को जोड दे . तो अपने आप विरोध खत्म हो जायेगा और वस्तुतत्त्व का यथार्थ और. संपूर्ण दर्शन हो सकेगा । जरूरी है कि हरेक दर्शन नयो की उपयुक्तता का स्वीकार करे ।
'नयामृतम्' नाम के इस संपादन में संक्षेप में नयो के विचारों का संकलन करके संगृहीत किया है ।
सरलता से नयो का प्राथमिक स्वरूप समझने में यह संग्रह निःशंक सहायक साबित होगा । क्योंकि इस संग्रह में दस ग्रंथों के नयविचार का संकलन किया है ।
'नयामृतम्' का प्रथम पर्व है अनुयोगद्वारसूत्रान्तर्गत 'नयानुयोग' । नयविषयक यह प्राचीनतम और आगमिक सूत्र हैं । पश्चाद्वर्ति सकल रचयिताओने इसी सूत्र के आधार पर नय को व्याख्यायित किया है । पू. आचार्यश्री हरिभद्र सू. कृत विवृत्ति भी यहां सामिल की है ।
नयामृतम् का द्वितीय पर्व 'नयकर्णिका' ग्रंथ है । जिसके रचयिता महोपाध्याय श्री विनयविजयजी गणिवर है । केवल २३ श्लोक की इस लघुकृति में अति सरलता से नयो का स्वरूपवर्णन किया गया है । .
नयामृतम् का तृतीय पर्व 'नयरहस्य' है । इसके कर्ता महोपाध्याय श्री यशोविजयजी गणिवर है । नयरहस्य में श्री अनुयोगद्वारसूत्रम् (श्रीआर्यरक्षितसूरिजी) तथा तत्त्वार्थसूत्रभाष्यम् (वाचक श्रीउमास्वातिजी) में उपवर्णित नयपदार्थ के आधार पर नयो का विवरण किया गया है । '
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