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है और विनाश के निमित्तभूत कलह के द्वार खोल देता है ।।३२७।।
सद्देसु न रंजिज्जा, रूवं दटुं पुणो न इक्विज्जा । - गंधे रसे अ फासे, अमुच्छिओ उज्जमिज्ज मुणी ॥३२८॥ .
अतः वाजिंत्रादि के शब्दों में मुनि को राग नहीं करना, मनोहर रूप पर अचानक दृष्टि गिरने पर भी उसे राग दृष्टि से पुनः न देखना, (वास्तव में सूर्य के सामने से दृष्टि खिंच ली जाती है वैसे दृष्टि खींची जानी चाहिए।
और सुंदर गंध, रस, स्पर्श में 'अमुच्छिओ' =गृद्ध हुए बिना, स्व साधुचर्या में उद्यम करना चाहिए ।।३२८।।
निहयाणि हयाणि य इंदिआणि, घाएहऽणं पयत्तेणं । ... अहियत्थे निहयाई, हियकज्जे पूयणिज्जाइं ॥३२९॥
इंद्रियाँ निहत-अनिहत दोनों प्रकार से है 'निहत' =मरी हुई। [इष्ट अनिष्ट विषय में गयी हुई इंद्रिय, उसमें राग, द्वेष न करे तो स्व कार्य न होने से मरी हुई निहत कही गयी है) 'अनिहत'=सक्षम (इससे विपरीत राग द्वेष करे तो अनिहत) अतः हे मुनिओं! 'घाएह पयत्तेणं' छार-रज्जु जैसी बनायी हुई इंद्रियों को (स्व विषय पर रागद्वेष रोकने के) प्रयत्न पूर्वक निहत करो। इस प्रकार 'अणं' =ऋण-कर्म (कर्म भी कर्ज समान आत्मा को भव केद में पकड़ रखता है अतः कर्म ऋण है) निहतानिहत है। (कर्म अधिक मारे गये अब थोड़े अनिहत है) उनका भी (कषाय मंदतादि द्वारा) प्रयत्न पूर्वक घात करें। अहितार्थ में प्रवर्त्त इंद्रियों को निहत-स्वकार्य-अकारी और हितकार्य जिनागम श्रवण जिनबिंब दर्शनादि में इंद्रियों को ('अनिहत'=स्वकार्यकरणसज्ज बनाकर) पूजनीय करो। उससे आत्मा पूजनीय बनता है ।।३२९।।
जाइकुलरूवबलसुअ-तवलाभिस्सरियअट्ठमयमत्तो । एयाई चिय बंधइ, असुहाई बहुं च संसारे ॥३३०॥
(मद द्वार-) जाति, कुल, रूप, बल, श्रुत, तप, लाभ और ऐश्वर्य इन आठ के मद से उन्मत्त संसार में जात्यादि अनंत गुण हीन प्राप्त हो वैसे अशुभ कर्म बंध करता है ।।३३०।।
जाईए उत्तमाए, कुले पहाणम्मि रूवमिस्सरियं । बलविज्जा य तवेण य, लाभमएणं च जो खिसे ॥३३१॥
स्वयं के उत्तम जाति, प्रधान कूल, सुंदर रूप, ऐश्वर्य, बल, विद्या, उत्कट तप और लाभ के मद से मंद बुद्धि दूसरों को निम्न दिखाता है। (मैं ऊँच हूँ यह नीच है) ।।३३१।। श्री उपदेशमाला