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में मान्य हो, और (अधिक मूढ़) शिष्य परिवार युक्त हो, (क्योंकि मूढजीव ही उसे गुरु करते है) वैसे ही आगम के रहस्यार्थ से अज्ञ हो (इससे ही गारव में मग्न होता है। वैसे-वैसे वह आगम-प्रवचन का शत्रु (नाशक) होता है। (क्योंकि वह प्रवचन की हीलना करवाता है) ।।३२३।।
पवराई वत्थपाया-सणोवगरणा', एस विभयो मे । अवि य महाजणनेया, अहंति अह इड्ढिगारविओ ॥३२४॥
(ऋद्धि गारव द्वार-) साधु अच्छे-अच्छे वस्त्र, आसन, उपकरण शिष्यादि को प्राप्तकर यह मेरी समृद्धी बढ़ी ऐसा मानता है, अग्रणी जन समुदाय पर मेरा वर्चस्व है ऐसा मानने से ऋद्धि गारव युक्त होता है। [गारव में प्राप्त पदार्थ पर औत्सुक्य, अहोभाव और अप्राप्त प्रति आसक्ति, प्रार्थना, याचना होती है उससे चिकने कर्म से आत्मा भारी होता है अतः उसे गौरव गारव कहते हैं ।।३२४।।।
अरसं विरसं लूहं, जहोवयन्नं च निच्छए भुत्तुं । निद्धाणि पेसलाणि य, मग्गइ रसगारचे गिद्धो ॥३२५॥
(रसगारव द्वार-) रसगारव से गृद्ध साधु 'अरस' =हिंगादि के संस्कार से रहित, 'विरस' रस-कस हिन पदार्थ, 'लुखे' =मिठास रहित वाल चोलादि, 'यथोपपत्र' =माया, लब्धि आदि के प्रयोग रहित प्राप्त ऐसा आहार वह लेना नहीं चाहता, उसे तो 'स्निग्ध' =विगइ युक्त 'पेशल'=मनोहर स्वादिष्ट भोजन स्पेशल-स्वयं के लिए ही बनाये हुए आहार की इच्छा रहती है ।।३२५।। . : सुस्सूसई सरीरं, सयणासणवाहणापसंगपरो । ... सायागारवगुरुओ, दुक्खस्स न देइ अप्पाणं ॥३२६॥ - . . (शाता गारव-) शाता गारव युक्त साधु शरीर की स्वच्छता आदि शोभा करता है, संथारादि में निष्कारण आसक्त रहता है, उसके परिभोग में निमग्न रहता है। देह को कष्ट न हो इसका सतत ध्यान रखता है। शरीर को शाता मिले उसी का खयाल रखता है ।।३२६ ।।
तयकुलछायाभंसो, पंडिच्चप्फसणा अणिट्ठपहो । .. वसणाणि रणमुहाणि य, इंदियवसगा अणुहति ॥३२॥
(इंद्रिय द्वार-) इंद्रियों के वशीभूत साधु अनशनादि तप से भ्रष्ट हो जाता है, तप छोड़ देता है, कूल के गौरव को नष्ट करता है, लोक में विख्यात कीर्ति का नाश करता है, पंडिताई को कलंकित करता है, 'अनिष्ट पथ' =संसार के मार्ग में गमन करता है, अनेक प्रकार के संकट सहन करता
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श्री उपदेशमाला