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________________ प्रति बेदरकारी) आजीवी-साधु वेष से पेट भरू (वेषविडंबक) जानना ।।२९८।। । पुब्बिं चक्नुपरिखिय-पमज्जिउं जो ठवेइ गिण्हइ वा । आयाणभंडमत्तनिवेवणाइ समिओ मुणी होइ ॥२९९॥ .. ___कोई वस्त्र पत्रादि पदार्थ लेते, रखते जो साधु पहले रखने के स्थान को देखता है पूजता है वैसे ही प्रर्माजन कर ग्रहण करता है तो वह आदानभंडमात्रनिक्षेप समिति वाला जानना ।।२९९।। उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणए य पाणविही । सुविवेड़ए पएसे, निसिरंतो होइ तस्समिओ ॥३००॥ स्थंडिल, प्रश्रवण, श्लेष्म, शरीर का मेल, नासिका का मेल च शब्द से परठने योग्य पदार्थ को आहारादि पर चढ़े हुए जीव जंतु को अच्छी प्रकार देखी हुई जीव रहित भूमि पर चक्षु से देखकर जयणा पूर्वक परठे। वह परिष्ठापनिका समिति वाला साधु जानना ।।३००।। (समिति द्वार पूर्ण). : कोहो माणो माया, लोहो हासो रई य अरई य । सोगो भयं दुगंछा, पच्चक्खकली इमे सव्ये ॥३०१॥.. (कषाय द्वार के पेटा द्वार) क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रतिअरति, शोक, भय, जुगुप्सा (दुर्गंछा) ये सब कलह के कारण होने से प्रत्यक्ष 'कलि' जानना (उपलक्षण से ये सभी अनर्थ के हेतु है) ||३०१।। . कोहो कलहो खारो, अवरुप्पमच्छरो अणुसओ य । चण्डत्तणमणुवसमो, तामसभायो य संतायो ॥३०२॥ (क्रोधद्वार-) क्रोध यह कलह, ईर्ष्या, असूया', पश्चात्ताप, उग्ररोष, अशांति, तामस भाव (रोषण-शीलता-कनिष्ठवृत्ति) और संताप स्वरूप है अर्थात् ये सब क्रोध ही है। और ।।३०२।। . निच्छोडण निभंछण, निराणुवत्तित्तणं असंवासो । कयनासो य असम्म, बंधड़ घणचिक्कणं कम्मं ॥३०३॥ 'निच्छोडण'-किसी को निकाल देना, 'निब्भंछण' =निर्भर्त्सना, तिरस्कार, वडिलों का अनुसरण न होना, गुरु के साथ रहना नहीं, कृतनाशगुर्वादि के उपकार को भूल जाना, और असम्म समभाव छोड़ देना (ये भी क्रोध के कार्य होने से क्रोध के ही रूपांतर है उस-उस प्रकार क्रोध करने से घन-गाढ़ चिकने कर्म बांधता है ।।३०३।। माणो मयहंकारो, पपरिवाओ य अत्तउक्करिसो । परपरिभवो वि अ तहा, परस्स निंदा असूया य॥३०४॥ श्री उपदेशमाला 62
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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