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कालस्स य परिहाणी, संजमजोगाई नत्थि खित्ताई ।
जयणाइ पट्टियव्यं, न हु जयणा भंजए अंगं ॥२९४॥ . (तब बुद्धिमान को क्या करना चाहिए? तो कहा कि-) समय खराब आ रहा है (इससे द्रव्य-क्षेत्र, काल भाव भी हीन हो रहे हैं) संयम पालन हेतु क्षेत्र भी नहीं है अतः प्रत्येक समय में जयणा पूर्वक वर्तन करना चाहिए (जयणा-आगमोक्त गुण ग्रहण-दोषत्याग) जयणा, संयम देह का नाश होने
नहीं देती ।।२९४।। . समिईकसायगारव-इंदियमयबंभचेरगुतीसु । . सज्झायविणयतवसत्तिओ अ जयणा सुविहियाणं ॥२९५॥
सुविहित मुनियों की जयणा-यतना (कर्तव्य करण-अकर्तव्य त्याग) निम्न स्थानों-कार्यों में होती हैं। १. समिति, २. कषाय, ३. गारव, ४. इंद्रिय, ५. मद, ६. ब्रह्मचर्य गुप्ति, ७. स्वाध्याय, ८. विनय, ९. तप और १०. शक्ति में (प्रयत्न) करनी होती है। (यह द्वार गाथा है अतः क्रमशः द्वारों का वर्णन करते हैं) ।।२९५।। ... जुगमित्तंतरदिट्ठी, पयं पयं चक्खुणा विसोहिंतो ।
अव्वक्खिताउत्तो, इरियासमिओ मुणी होइ ॥२९६॥ .. ('समिति'द्वार-ईया समिति) ईर्या समिति में सावधान मुनि युग (धूसर) प्रमाण आगे दृष्टि रखकर नेत्रों से पग-पग पर (यहाँ कोई जीव जंतु तो नहीं है वैसे) भूमि का शोधन करते हुए (बाजु में और पीछे का भी उपयोग रखते हुए) अव्याक्षिप्त-शब्दादि विषय में राग-द्वेष किये बिना उपयोग पूर्वक (मुनि) चलता है ।।२९६।। .
- कज्जे भासइ भासं, अणवज्जमकारणे न भासइ य । ..विगहविसुत्तियपरिवज्जिओ, अ जइ भासणासमिओ ॥२९७॥
(भाषा समिति-) ज्ञानादि-प्रयोजन में ही वचनोच्चार करें, वह भी निरवद्य (निष्पाप)। ज्ञानादि प्रयोजन बिना बोले ही नहीं। विकथा और विश्रोतसिका-आंतरिक खराब बोल-बोल करने का त्यागी 'च' से १६ बोल का विधिज्ञ-ज्ञाता ऐसा मुनि भाषा समिति का पालक होता है ।।२९७।।
बायालमेसणाओ, भोयणदोसे य पंच सोहेइ । . सो एसणाइ समिओ, आजीवी अन्नहा होइ ॥२९८॥
४२ एषणा के (आधाकर्मि आदि दोषों से रहित) और भोजन मंडली के पाँच दोषों का त्यागी वह साधु एषणा समिति युक्त है। अन्यथा (दोषों के
श्री उपदेशमाला