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देवाण देवलोए, जं सोक्खं तं नरो सुभणिओऽवि । न भणइ वाससएण वि, जस्सऽवि जीहासयं हुज्जा॥२७८॥
देवलोक में देवों को जो सुख होते हैं ऊन सुखों का वर्णन कुशल . वक्ता जिसको शत जीभ हो और सो वर्ष तक कहे तो भी वर्णन कर न सके।.. (क्योंकि वे सुख अमाप होते हैं। इससे विपरीत) ।।२७८।।
नरएसु जाइं अइकक्खडाइँ दुक्खाई परमतिकखाई । को वण्णेही ताई? जीवंतो वासकोडीवि ॥२७९॥ .
नरक में जो शारीरिक अति कठोर और मानसिक अति तीक्ष्ण दुःख . . भोगने पड़ते हैं। उसका वर्णन एक क्रोड़ वर्ष का आयुष्य वाला जीवन पर्यंत ... वर्णन करे तो भी कर न सके? (क्योंकि वे दुःख अपरिमित है) ।।२७९।।
कक्खडदाहं सामलि-असिवणवेयरणिपहरणसएहिं । .. . जा जायणाउ पावंति, नारया तं अहम्मफलं ॥२८०॥
नरक में नारक तीव्र दाह, शाल्मली वन, असिपत्रवन, वैतरणी नदी और सेंकडों शस्त्रों से जो पीड़ा पाते हैं, वे अधर्म पाप कार्य का फल है.. ।।२८०।।
तिरिया कसंकुसारा-नियायवहबंधमारणसयाई । नवि इहयं पाता, पत्थ जइ नियमिया हुंता ॥२८१॥
तिर्यंच चाबुक, अंकुश और आरे की सेंकडों बार मार, बंध (लाठी की मार), प्रहार, रस्सी से बंधन और प्राणघातक मार खाता है, जो पूर्व के भव में नियम बद्ध जीवन जिया होता तो यह भव न मिलता ।।२८१।।
आजीवसंकिलेसो, सुक्खं तुच्छं उवद्दया बहुया । नीयजणसिट्ठणा वि य, अणिट्ठवासो अ माणुस्से ॥२८२॥
मनुष्य भव में जीवन भर संक्लेश (चित्त-असमाधि) विषय-सुख वह भी नीरस, चोरादि के उपद्रव अधिक, जैसे-तैसे निम्न कक्षा के मानवों का आक्रोश और अप्रिय स्थान पर निवास आदि कष्ट है ।।२८२।।
चारगनिरोहवहबंध-रोगधणहरणमरणवसणाई ।। मणसंतायो अजसो, निग्गोवणया य माणुस्से ॥२८३॥
और कैदखाने में रहना पड़े, शस्त्रादि के प्रहार सहने, रस्सी आदि के बंधन, अनेक प्रकार के रोग, धन माल लूंटा जाना, मारणांतिक संकट, चित्त में संताप, अपयश, विटंबणा इस प्रकार मनुष्य भव में अनेक प्रकार के दुःख
श्री उपदेशमाला
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