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________________ निच्वं दोससहगओ, जीवो अविरहियमसुभपरिणामो । नवरं दिन्ने पसरे, तो देइ पमायमयरेसु ॥१८६॥ (आत्म दमन बिना आत्मा) सदा रागादि दोष से ग्रसित और सतत संक्लिष्ट अध्यवसाय युक्त रहता है। मात्र उसको (यथेष्ट चेष्टा को) महत्त्व देने से लोक विरुद्ध-शास्त्र विरुद्ध कार्यों में (विषय कषाय, प्रवृत्ति रूप) प्रमाद का आचरण होता है (यानि वे कार्य विशेष रूप से होते है) ।।१८६।। अच्चियवंदिय पूइअ, सक्कारिय पणमिओ महग्यविओ । तं तह करेइ जीवो, पाडेइ जहप्पणो ठाणं ॥१८७॥ (प्रमाद क्या करता है?) जीव चंदनादि से अर्चित होता है। गुण स्तुति से वंदित होता है। वस्त्रादि से पूजित, अभ्युत्थानादि से सत्कारित, मस्तक से नमस्कार पाये और (आचार्यादि पदवी आदि से) महामूल्यवान् बनें। तब वह मूढ़ जीव दुष्ट आचरण करता है (वंदनादि करने वालों में अधम के रूप में निंदित होता है) 1।१८७।। सीलब्बयाई जो बहुफलाइँ, हंतूण सुक्खमहिलसइ । थिइदुब्बलो तवस्सी, कोंडीए कागिणिं किणइ ॥१८८॥ (स्वर्ग मोक्ष- पर्यंत के) अधिक फल दायक मूलव्रत उत्तर गुणों का नाशकर जो (तुच्छ वैषयिक) सुख को इच्छता है। वह विशिष्ट चित्त स्थिरता बिना का बेचारा क्रोड़ के धन से काकिणी (१ रूपये का ८०वाँ भाग) को खरीदता है (ऐसे जीवों को विषयों से तृप्ति तो नहीं होती, विपरीत भोगों से श्रम बढता हैं। इंद्रियों की अस्वस्थता बढ़ती है क्योंकि) ।।१८८।। ... जीवो जहामणसियं, हियइच्छियपत्थिएहिं सुक्वेहिं । तोसेऊण न तीरइ जावज्जीवेण सव्येण ॥१८९॥ ... संसारी जीव को 'यथामनस्कृत' चिंतित हृदय को इष्ट और प्राथित (विषय) सुख संपूर्ण जीवन पर्यंत भी प्राप्त हो जाय तो भी संतोष नहीं होता। (दिन, महिनों तक सुख मिलने पर भी संतुष्ठी नहीं होती) ।।१८९।। .. सुमिणंतराणुभूयं, सुक्खं समइच्छियं जहा नत्थि । एवमिमं पि अईयं, सुक्खं सुमिणोयमं होई ॥१९०॥ जैसे स्वप्न में भोगा सुख स्वप्न चले जाने पर नहीं रहता। वैसे यह (वैषयिक सुख) भी चले जाने पर स्वप्न सुख के समान नहीं रहता। क्योंकि तुच्छ है अतः उस पर आस्था नहीं करनी। नहीं तो-] ।।१९०।। श्री उपदेशमाला
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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