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जं तं क्यं पुरा पूरणेण, अइदुक्कर चिरं कालं । जड़ तं दयावरो इह, करिंतु तो सफलयं हुतं ॥१०९॥
पूर्व में पूरण तापस ने अति दुष्कर तप दीर्घकाल तक किया, वही तप जो दयायुक्त होकर (सर्वज्ञ शासन में रहकर) किया होता तो सफल होता (मोक्ष साधक बनता) ।।१०९।।
कारणनीयावासे, सुठुयरं उज्जमेण जइयव्यं । जह ते संगमथेरा, सपाडिहेरा तया आसि ॥११०॥ ..
सर्वज्ञ शासन में अपवाद मार्ग से उद्यत विहारी होकर दसरी रीति से प्रवृत्ति करे तो भी आराधक है। क्षीण जंघाबल आदि कारणों से मुनि को स्थिरवास करना पड़े तो संयम में उत्कट उद्यम से प्रयत्न करना। जैसे वे स्थविर संगम सूरि स्थिरवास में भी ऐसी उत्कट उद्यत यतना रखते थे, जिससे उनको देवकृत अतिशयों की संपत्ति प्राप्त थी ।।११०।। . ..
एगंतनियवासी, घसरणाईसु जह ममत्तं पि ।... कह न पडिहति कलिकलुस-रोसदोसाण आवाए ॥१११॥
निष्कारण नित्य स्थिरवास करने वाले, उसमें भी घर-छत, स्वजनादि का खयाल रखने की ममता में गिरने वाले कलह-हिंसादि पाप और क्रोध (मानादि) के दोषों में संमिलित कैसे नहीं होंगे? (कारण) ।।१११।।
अवि कत्तिऊण जीवे, कृतौ घरसरणगुत्तिसंठप्पं? अवि कत्तिआ अ तं तह, पडिया असंजयाण पहे ॥११२॥
जीवों को छेदनादि किये बिना घर-छत, वाड़, दिवार आदि की मरम्मत कैसे होगी? (नहीं ही होगी) और इस प्रकार छेदनादि कर कराकर साधु असंयमी-गृहस्थों के मार्ग में ही गिरा ।।११२।।
थोवोऽपि गिहिपसंगो, जइणो सुद्धस्स पंकमावहइ । जह सो वारतरिसी, हसिओ पज्जोयनरवइणा ॥११३॥
(मात्र गृहकर्म ही नहीं) गृहस्थों का अल्प संबंध परिचय भी पवित्र साधु को दोष से मलिन बनाने वाला बनता है। जैसे वारत्तक ऋषि का प्रद्योतराजा द्वारा हास्य किया गया। (अल्प परिचय भी दोषकारी है तो विशेष में स्त्री संबंध का पूछना ही क्या?) ।।११३।।
सब्भायो वीसंभो, नेहो रइवइयरो य जुवइजणे । ... सयणघर-संपसारो, तवसीलवयाई फेडिज्जा ॥११४॥
स्त्रियों का साधु वसति में अकाल में आना, उन पर विश्वास; स्नेहराग, श्री उपदेशमाला
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