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धम्ममएहिं अइसुंदरेहिं, कारणगुणोवणीएहिं । पल्लायंतो व्य मणं, सीसं चोएइ आयरिओ ॥१०४॥
धर्माचार्य (कैसे करुणा और वात्सल्य से भरे हुए होते हैं) शिष्य को प्रेरणा-प्रोत्साहन देते हैं व धर्ममय (निरवद्य) और वह भी अति सुंदर (दोष रहित) वचन से, वह भी प्रयोजन तथा ज्ञान पात्रादि गुण युक्त वचन से और इस प्रकार वे वचन शिष्य के मन को आल्हाद् उत्पन्न करने वाले होते हैं। (मनः प्रल्हाद सत्य वचन से ही किया जाता है असत्य प्राणांते भी नही बोला जाय) ।।१०४।।
जीअं काऊण पणं, तुरुमिणिदत्तस्स कालिअज्जेण । . अवि अ सरीरं चत्तं, न य भणिअमहम्मसंजुत्तं ॥१०५॥
जैसे तुरूमिणि नगरी में मंत्रीपद में से राजा बने हुए दत्त ब्राह्मण के सामने श्री कालिकाचार्य ने जीवन को होड़ में रखकर (सत्य बोलकर) शरीर की ममता भी छोड़ दी! परंतु असत्य अधर्म युक्त वचन न कहा ।।१०५।।
फुडपागडमकहतो, जह-ट्ठियं बोहिलाभमुवहणइ । जह भगवओ विसालो, जरमरणमहोअही आसि ॥१०६॥
स्पष्ट और प्रकट और यथावस्थित धर्म को न कहने वाले अपने बोधिलाभ का नाश करते हैं। जैसे महावीर प्रभु ने (मरीचि के भव में कविला! 'इहयंपि इत्थंपि' ऐसा संदिग्ध वचन के कारण) जन्म जरा मृत्यु का बड़ा समुद्र निर्माण किया ।।१०६।।
कारुण्णरूण्णसिंगार-भावभयजीवियंतकरणेहिं । .साहू अवि अ मरंति, न य निअनियमं विराहिति॥१०७॥
साधु को चलित करने हेतु स्वजनादि करुणा भाव से रूदन विलाप करे, स्त्रीयाँ कामोत्तेजक श्रृंगार हाव भाव बताये, राजादि से भय-त्रास या - प्राणनाशक कारण आ जावे तो भी साधु मृत्यु का स्वीकार करते हैं किन्तु
नियम की विराधना नहीं करते ।।१०७।। . .. अप्पहियमायरंतो, अणुमोअंतो य सुग्गइं लहइ ।
रहकारदाणअणुमोअगो, मिगो जह य बलदेयो ॥१०८॥
(तप संयमादि) आत्महितकर की आचरणा करने वाला और (दान संयमादि को) अनुमोदन करने वाला सद्गति प्राप्त करता है जैसे रथकार के दान की अनुमोदना करने वाला मृग, रथकार और बलदेव मुनि (पांचमें देवलोक में गये) ।।१०८।।
श्री उपदेशमाला
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