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मिण गोणसंगुलीहिं, गणेहिं वा दंतचक्कलाई से । इच्छंति भाणिऊणं, कज्जं तु त एव जाणंति ॥१४॥
(विनीत शिष्य का यह कर्तव्य है कि) गुरु कदाच ऐसा कहे कि "अंगुलियों से सर्प को मापो" या "साँप के दांत गिनो" तो भी तहत्ति कहकर स्वीकारकर उस कार्य को शीघ्र करता है (क्यों?) इस आदेश का कारण आज्ञा करनेवाले गुरु अच्छी प्रकार समजते हैं ।।९४।।
कारणविऊ कयाई, सेयं कायं वयंति आयरिया । तं तह सद्दहिअव्यं, भविअव्वं कारणेण तहिं ॥१५॥
कभी प्रयोजन समझने वाले आचार्य (गुरु) कौए को शुक्ल कहे तो भी उस वचन को उसी प्रकार श्रद्धाकर उसे मानना चाहिए। (ऐसा सोचकर कि) ऐसा कहने में कारण होगा अतः गुरु वचन में विश्वास रखना चाहिए ।।९५।।
जो गिण्हई गुरुवयणं, भण्णंतं भावओ विसुद्धमणो । ओसहमिव पिज्जतं, तं तस्स सुहावहं होइ ॥१६॥
जो शिष्य गुरु मुख से प्रकटित वचन भाव पूर्वक निर्मल-निर्विकल्प मन से स्वीकार कर लेते हैं, उनको वह गुरु आज्ञा जैसे लिया हुआ औषध रोग का नाश करता है वैसे वे वचन कर्म रोग के नाशक बनकर सुखकारक होते हैं ।।९६।। . . .
अणुवत्तगा विणीया, बहुक्खमा निच्चभत्तिमंता य ।
गुरुकुलवासी अमुई, धन्ना सीसा इह सुसीला ॥१७॥ - - गुरु की इच्छानुसार वर्तक, विनय युक्त, विशेष क्षमा युक्त, नित्य गुरु भक्ति में निमग्न, गुरुकुलवास को नहीं छोड़ने वाले ऐसे सुशील शिष्य धन्य हैं ।।९।।
जीवंतस्स इह जसो, कित्ती य मयस्स परभवे धम्मो ।
सगुणस्स य निग्गुणस्स य, अयसो अकित्ती अहम्मो य॥९८॥ ... (शिष्य में ऐसे गुणों का प्रभाव यह है कि) वह जीवित है, वहाँ तक लोक में उसका गुणवान के रूप में यश फैलता है। मृत्यु के बाद भी कीर्ति अखंड रहती है और परभव में उत्तम धर्म की प्राप्ति होती है, यह सब सद्गुणी को प्राप्त होता है। निर्गुणी (गुरु-अनुवर्तनादि) गुण रहित की यहाँ अपकीर्ति अपयश और परभव में (कुगति के कारणभूत) अधर्म की प्राप्ति होती है ।।९८।।
श्री उपदेशमाला
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