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________________ शरीर रूपी गृह की चिंता छोड़नेवाले शुद्ध आचारवान् मुनि 'जीव अन्य है शरीर अन्य है' इस भावना से भावित होकर धर्म निमित्ते शरीर का भी त्याग कर देते हैं। (अर्थात् प्राणांते भी धर्म की रक्षा करते हैं) ।।८९।। . एगदिवसं पि जीवो, पव्वज्जमुवागओ अनन्नमणो । . जड़वि न पावइ मुक्खं, अवस्स वेमाणिओ होइ ॥१०॥ (इस प्रकार धर्म प्रति आदर भाववाला) आत्मा एक दिन का भी संयम को पालकर संयम में निश्चल मनवाला होकर मोक्ष पाता है। अगर (वैसा संघयण काल आदि का योग न हो तो) मोक्ष प्राप्त न करे तो भी वैमानिक देव बनता है। (चारित्र से समर्थित समकित अल्पावधि समय का हो तो भी विशिष्ट फल का कारण बनता है ।।९०।। सीसावेढेण सिरम्मि, वेढिए निग्गयाणि अच्छीणि । . ... मेयज्जस्स भगवओ, न य सो मणसा वि परिकुविओ॥११॥ (क्रौंच पक्षी ने चुगे हुए स्वर्ण यव की बात मेतार्य मुनि ने क्रौंच पंक्षी की करुणा से न कही तो) भगवान् आर्य मेतार्य मुनि का मस्तक (सोनार ने) वाघर (चमड़े) से लपेटा तब उनके नेत्र नीकल गये फिर भी वचन-काया से तो क्या मन से भी (सोनार पर) कुपितन हुए। (मुनि धर्म के लिए शरीर नष्ट होने दे परंतु शरीर नाशक पर क्रोध न करे) ।।९१।।। . जो चंदणेण बाहुं, आलिंपइ वासिणा विं तच्छेइ । संथुणइ जो अ निंदइ, महरिसिणो तत्थ समभावा॥१२॥ (शारीरिक शाता-अशाता रूप) कोई शरीर पर चंदन का विलेपन करे या कोई वांसले से चमड़ी उतारे, (मानसिक शाता-अशाता रूप) कोई स्तुति करे या कोइ निन्दा करे किंतु उत्तम मुनि दोनों समय दोनों व्यक्ति प्रति समभाव रखें। (न रोष करें, न तोष करें) ।।९२।। सिंहगिरिसुसीसाणं भदं, गुरुवयणसद्दहंताणं । वयरो किर दाही, वायणत्ति न विकोविरं वयणं ॥१३॥ (ऐसी साधुता गुरु के उपदेश से प्रकटित होती है अतः गुरु वचन को विकल्प रहित स्वीकार करने वाले मुनियों को धन्य है) गुरु वचन में श्रद्धावान् उन आर्य सिंहगिरि के उत्तम शिष्यों का कल्याण हो कि 'तुमको वाचना यह बाल मुनि वज्र देगा' ऐसा कहने पर उनके मुख पर अंशमात्र विपरीत रेखा न आयी ।।९३।। श्री उपदेशमाला 20
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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