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हाथी के कर्ण समान चंचल राज्य लक्ष्मी का त्याग नहीं किया तो जीव उस (लक्ष्मी की) की मूर्छा से संग्रहित स्वयं के पाप रूप कर्म कचरे से भारी होकर नरक में गिरता है ।।३२।।
योत्तूण वि जीवाणं, सुदुक्कराइंति पावचरियाई । भयवं जा सा सा सा, पच्चाएसो हु इणमो ते ॥३३॥
जीवों द्वारा आचरित कितने ही पाप ऐसे है जो सभा में कहने भी दुष्कर होते हैं। इसका उदाहरण यह कि वीर परमात्मा ने एक पृच्छक के जा सा सा सा इस प्रश्न के उत्तर में वही उत्तर देकर समाधान किया (क्योंकि वह पाप प्रकट कहने जैसा नहीं था।) ।।३३।।।
पडिवज्जिऊण. दोसे, नियए सम्मं च पायपडियाए । तो किर मिगावईए उप्पन्नं केवलं नाणं ॥३४॥
गुरुणी चंदन बाला के द्वारा स्वयं की भूल स्वीकृत करने वाली आर्या मृगावती गुरुणीजी के पैरों में मस्तक नमाकर क्षमा याचना करते केवलज्ञान प्राप्त किया ।।३४।। ... आत्मार्थि को हरेक प्रकार से गुरु का विनय करना चाहिए।
किं सक्का? योत्तुं जे, सरागधम्ममि कोइ अक्साओ । . जो पुण धरेज धणियं, दुब्बयणुज्जालिए स मुणी ॥३५॥ .. क्या सराग संयमी और अकषायी ऐसा कह सकते हैं? नहीं, तो भी मुनि वही जो अनिष्ट वाक्य से प्रज्वलित कषाय के उदय को रोकता है या उसे निष्फल बनाता है ।।३५।। .. कडुयकसायतरुणं पुप्फ, च फलं च दोवि विरसाईं ।
पुप्फेण झाइ कुविओ, फलेण पावं समायरइ ॥३६॥ ... क्योंकि वह मुनि मानता है कि कटु कषाय रूपी वृक्ष के पुष्प और फलं दोनों कटु है। क्रोधित कषाय के पुष्प रूप में अन्य का अहित चिंतन
और फल रूप में ताड़ना आदि पाप करता है। अतः कषाय और उसके निमित्त भूत विषयों का त्याग करना चाहिए ।।३६।।
संते वि कोवि उज्जइ, कोवि असंते वि अहिलसइ भोए। - चयइ परपच्चएण वि, पभवो दठूण जह जंबु ॥३७॥
___ कोई विवेकी आत्मा आर्य जंबू कुमार के समान भोगों को छोड़ता है और कोई अविवेकी प्रभव चोर के समान भोग सामग्री प्राप्त करने की इच्छा
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श्री उपदेशमाला