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________________ अपवाद ने अनाचार का रूप भी ले लिया है। ज्ञानी ही बच सकेंगे ऐसी आचरणाओं से ।।२६।। थद्धो निरुययारी अविणीओ, गविओ निरुवणामो । . . साहुजणस्स गरहिओ, जणे वि वयणिज्जयं लहइ ॥२॥ अभिमान से अक्कड, कृतघ्न, अविनीत, गर्विष्ठ (स्वप्रशंसक), गुरु को भी वंदन न करने वाला और इन दुर्गणों से सज्जनों में निंद्य व्यक्ति जन समाज में भी निम्नता पाता है ।।२७।। थोयेण वि सप्पुरिसा, सणंकुमार व्य केइ बुझंति । देहे खणपरिहाणी, जं किर देवेहिं से कहियं ॥२८॥ कितनेक आत्मा छोटे से निमित्त को पाकर सनत्कुमार चक्री के समान बोध पा जाते हैं। जैसे कि दो देवों ने उनसे कहा कि क्षण मात्र में शरीरं विकृत हो जाता है। और इतने कथन मात्र से वे प्रतिबुद्ध होकर.प्रवज्जा लेकर घर से निकल गये ।।२८।। जड़ ताव लवसत्तम सुरा, विमाणयासी वि परिवडंति' सुरा। चिंतिज्जंतं सेसं, संसारे सासंयं कयरं? ॥२९॥ देवायु में अति दीर्घ आयुवाले 'लवसत्तमिया'. (अनुत्तर विमानवासी देव) देवों को भी अपने स्थान से च्यवन होना पड़ता है तो इस संसार में शाश्वत स्थान कहाँ है? अतः धर्म ही शाश्वत है ।।२९।। कह तं भण्णइ सोक्खं? सुचिरेण वि जस्स दुक्खमल्लियइ। जं च मरणावसाणे, भवसंसाराणुबंधि च ॥३०॥ (इसी कारण) उसे सुख ही कैसे कहा जाय? कि दीर्घ काल के पश्चात् भी दुःख आ जाय! और वह मृत्यु पर्यंत रहे और जो भव में परिभ्रमण की परंपरा युक्त हो। वस्तुतः भौतिक सुख दुःख ही है ।।३०।। उवएससहस्सेहिं वि, बोहिज्जतो न बुज्झइ कोई । जह बंभदत्तराया, उदाइनियमारओ चेव ॥३१॥ कोई बहुलकर्मी जीव हजारों युक्तियों से उपदेश करने पर भी बोधित नहीं होता। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती एवं उदायी नृपमारक विनयरत्न नामक साधु के समान ।।३१।। गयकन्नचंचलाए, अपरिचत्ताए रायलच्छीए । जीवा सकम्मकलिमल-भरियभरा तो पडंति अहे ॥३२॥ श्री उपदेशमाला
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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