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________________ कुपथ्य सेवन से रोगी बने हुए को सुवैद्य के संपर्कादि से पथ्य सेवन द्वारा लाभ मिलता देखकर आरोग्य की आकांक्षा से सर्वथा कुपथ्य सेवन के त्याग की भावना होती है। और हृदय से तो वह पथ्य सेवन की ही झंखना करता हैं। फिर भी अमल में कुपथ्य त्याग धीमे-धीमे करता आता है। इस प्रकार यहाँ अधिक काल पासत्थापने का सेवन करने वाले रोगीष्ठ बने हुए को सुसाधुजन के संपर्कादि से तीव्र धर्मश्रद्धा और गाढ़ता से संयमराग उपस्थित होने पर भी पासत्थेपने का सर्वथा त्याग दुष्कर होने से धीरे-धीरे त्याग करता आता है। उससे वह संविग्न पाक्षिकपना आराधता है। अतः इसे तीसरे मार्ग रूप में अर्थात् मोक्ष का परंपरा से कारण रूप में कहा। शेष तो पूर्व में सुसाधुता का पालनकर फिर वह छोड़कर सुसाधुमार्ग प्रति अनादर वाला बन जाय तो वह संविग्न पाक्षिक भी नहीं है ।।५२८।। किं मूसगाण अत्थेण? किं वा कागाण कणगमालाए? । मोहमलखवलिआणं, किं कज्जुवएसमालाए? ॥५२९॥ यह अनेक प्रकार के सद उपदेशो की माला स्वरूप उपदेश माला . अयोग्य को नहीं देनी। क्योंकि उंदरों को सोने आदि पैसे मिलने से क्या लाभ? कौए को सोने की या रत्नजड़ित सोने, की माला से क्या प्रयोजन? अर्थात् कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता वैसे मिथ्यात्वादि कर्मकीचड़ से खरंटित जीवों को उपदेशमाला से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता ।।५२९।।। चरणकरणालसाणं, अविनयबहुलाण सययडजोगमिणं । न मणी सयसाहस्सो, आवज्झइ कोच्छुभासस्स ॥५३०॥ चरण-करण के सम्यक् पालन में प्रमादी और अनेक प्रकार के अविनय से अत्यंत भरे हुए को यह उपदेशमाला देनी यह सर्वदा अनुचित है। 'कुच्छ भासस्स' =कौए के कंठ में लाख मूल्य का रत्न नहीं बंधा जाता। बांध ले तो वह हास्यपात्र बनता है वैसे दुर्विनीत को उपदेश माला देने वाला हांसी पात्र बनता है ।।५३०।। नाऊण करगयामलं व, सब्भावओ पहं सव्यं । धम्मम्मि नाम सीइज्जड़, त्ति कम्माइं गुरुआईं ॥५३१॥ ऐसे उपदेश के थोक से अयोग्य को सुधारा कैसे नहीं? तो कहा कि-हाथ में रहे हुए आंवले के सदृश सभी ज्ञानादि मोक्षमार्ग सद्भाव से उपादेय रूप में स्पष्ट जानते हुए भी जो-जो धर्म में प्रमादी बनें। इस पर से जाना जाता है कि उनके कर्म भारी है। अर्थात् वे बेचारे कर्मों से गाढ़ परतंत्र होने से ही सुधरते नहीं ।।५३१।। श्री उपदेशमाला 116
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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