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मोक्षमार्ग में द्रढ़ बंधा हुआ और उसका ही पक्षकार हो वह संविग्न पाक्षिक है। इनके सिवाय पासत्थादि है। वर्तमान के पासत्थादि के पूर्व के संविग्नपने के आचरण की अब महत्ता नहीं है। सारांश लोकाचरण से विलक्षण आगम परतंत्रता ही अपरलोक-मोक्ष का अंग है। ऐसी परतंत्रता रखकर शक्त्यनुरूप जो कुछ आचरण किया जाय वही कर्म निर्जराकारी है अतः कहते हैं।।५२५।।
हीणस्स वि सुद्धपरूवगस्स, संविग्गपखवायस्स । जा जा हविज्ज जयणा, सा सा से निज्जरा होइ ॥५२६॥
निष्कलंक चारित्र तो दूर किन्तु उत्तर गुणों से युक्त न्यून फिर भी 'शुद्ध प्ररूपक'. यथावस्थित सर्वज्ञ-आगम-प्रकाशन और संविग्न साधुओं पर पक्षपात वाले से जो-जो जयणा परिमित जलादि ग्रहण में दोष अल्प लगाने की कुछ शुभ परिणति रूप यतना होती है। वे वे और काया से शिथिल होने पर भी हृदय में शुद्ध आराधना पर द्रढ़ राग और सदनुष्ठान पर गाढ़ ममता होने से वह जयणा निर्जराकारी होती है ।।५२६।।
सुंकाईपरिसुद्धे, सइ लाभे कुणइ याणिओ चिटुं । . एमेव य गीयत्थो, आयं दटुं समायरइ ॥५२७॥
गीतार्थ अधिक गण और अल्पदोष का विचारकर जिनाज्ञानुसार कुछ दोषवाला सेवन करे तो वह भी महानिर्जरा के लाभ के लिए होता है। क्योंकि जैसे व्यापार में वणिक राज्य के कर आदि (नौकर के पगार, व्याज, दुकानभाड़ा आदि खर्च दे देने के बाद जो मुनाफा रहता हो तो व्यापारी वह प्रवृत्ति करता है। उसी दृष्टि से 'गीतार्थ' आगमसार पाया हुआ पुरुष अधिकतर ज्ञानादिका लाभः देखकर कारण से. यतना से कुछ (अल्पदोष वाला) सेवन करता है ।।५२७।। । ... आमुक्कजोगिणो च्विअ, हवड़ थोवाऽवि तस्स जीवदया। — संबिग्गपखजयणा, तो दिट्ठा साहुग्गस्स ॥५२८॥
गीतार्थ को आय-व्यय की तुलनाकर सप्रयोजन सेवन करने से निर्जरालाभ हो, परंतु निष्प्रयोजन सेवन करने वाले ऐसे संपूर्ण साधुधर्म से रहित संविग्नपाक्षिक के मार्ग का समर्थन क्यों किया? तो कहा कि'आमुक्कजोगिणो' =संयम धर्म की प्रवृत्तियाँ सर्वथा छोड़ देने वाले साधुवर्ग का विचार करे तो उसको थोड़ी भी जीवदया होती है। इस कारण संविग्नपक्ष' =मोक्षाभिलाषी सुसाधु के पक्षवाले की जयणा पूर्वोक्त मनाक् शुभ परिणति होने का भगवान ने देखा है। तात्पर्य-अधिक काल
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श्री उपदेशमाला