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________________ क्योंकि अरिहंत परमात्मा की पूजा में रक्त, उत्तम मुनियों की वस्त्रादि से पूजा में उद्यमी उजमाल और अणुव्रतादि देशविरति धर्म के आचार पालन में द्रढ उत्तम श्रावक विशेष अच्छा है। परंतु साधु वेश रखकर संयम धर्म से भ्रष्ट होने वाला अच्छा नहीं। क्योंकि जिनाज्ञा-भंजक और शासन की लघुता कराने वाला बनता है ।।५०२।। सव्यं ति भाणिऊणं, विरई खलु जस्स सब्बिया नत्थ । सो सव्यविरइवाई, चुक्कड़ देसं च सव्यं च ॥५०३॥ सव्वं (सावज्ज-समस्त पाप प्रवृत्तियों का त्रिविध त्रिवधे त्याग करता हूँ ऐसा बोलकर जिसको सर्व पाप-व्यवहार की निवृत्ति है। ऐसा सर्व विरति को उच्चरनेवाला देशविरति और सर्वविरति से चूक जाता है (क्योंकि प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता। मात्र विरति ही नहीं परंतु सम्यक्त्व से भी चूक जाता है। क्योंकि-- ।।५०३।। जो जहवायं न कुणइ, मिच्छद्दिट्ठी तओ हु को अन्नो?] वड्ढेइ अ मिच्छत्तं, परस्स संकं जणेमाणो ॥५०४॥ जो कहने के अनुसार पालन नहीं करता उससे बढ़कर दूसरा कौन मिथ्या दृष्टि है? अर्थात् वह मिथ्यादृष्टि शेखर है। वह दूसरों के मिथ्यात्वयानि विपरीत अभिनिवेश को बढ़ा रहा है क्योंकि वह दूसरे को स्वयं के शिथिलाचार से सर्वज्ञ-आगम पर संदेह उत्पन्न कराने वाला बनता है कि क्या जिनागम का धर्म ऐसा असद् आचारमय ही होगा! इस धर्म में मात्र बोलने का सत्य और आचरण में कुछ भी नहीं? ।।५०४।। आणाए च्चिय चरणं, तभंगे जाण किं न भग्गंति? । आणं च अइक्कतो, कस्साएसा कुणइ सेसं? ॥५०५॥ . . जिनाज्ञा का महत्त्व कैसा? तो कहा कि-आज्ञानुसार वर्तन से ही चारित्र है। आज्ञा का भंग हो तो समजना की क्या भंग न हुआ? सभी धर्म नष्ट हो गया। जो आज्ञा का ही उल्लंघन करता है तो शेष अनुष्ठान क्रिया किसकी आज्ञा से करता है तात्पर्य आज्ञा भंग से विडंबणा ही है ।।५०५।। संसारो अ अणंतो, भट्ठचरित्तस्स लिंगजीविस्स । ... पंचमहव्वयतुंगो, पागारो भिल्लिओ जेण ॥५०६॥ .... जिसने पाँच महाव्रत रूपी उच्च किल्ला तोड़ दिया (चारित्र के परिणाम नष्ट कर दिये) ऐसा चारित्र भ्रष्ट और 'लिंगजीवी' =साधु वेश को धंधे का माल बनाकर उसके आधार से जीवन निर्वाह करने वाला अनंत श्री उपदेशमाला 109
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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