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________________ महिलाण सुबहुयाण वि, मज्झाओ इह समत्थघरसारो । . रायपुरिसेहिं निज्जइ, जणे वि पुरिसो जहिं नत्थि ॥१९॥ जिस घर में पुरुष नहीं है (मुख्य पुरुष की मृत्यु हो गयी है) उस घर में अनेक स्त्रियाँ (उसकी पत्नियाँ हो) हों तो भी उस घर का सर्वस्व (धनादि) राज पुरुष ले जाते हैं। इस उदाहरण से भी पुरुष की प्रधानता सिद्ध की है ।।१९।। आराधना आत्मसाक्षी से करने का विधान बताते हैंकिं परजणबहुजाणावणाहिं, वरमप्पसखियं सुक्यं । इह भरहचक्कवट्टी, पसन्नचंदो य दिटुंता ॥२०॥ ... स्वयं को आत्म हितार्थ जो अनुष्ठान करना है वह दुसरों को बताने की क्या आवश्यकता है? आत्म साक्षी से ही अनुष्ठान सुकृत करना हितावह है, यहाँ भरत चक्रवती और प्रसन्नचंद्र का उदाहरण प्रख्यात है ।।२०।। वेसोवि अप्पमाणो, असंजमपएसु वट्टमाणस्स ।। किं परियत्तियवेसं, विसं न मारेइ खज्जतं? ॥२१॥ छ काय की विराधनादि स्वरूप असंयम स्थानों में प्रवृत्त साधु का रजोहरणादि वेष अप्रमाण है क्योंकि केवल वेष से आत्म शुद्धि नहीं होती। यहाँ दृष्टांत दिया कि क्या एक वेष को छोड़कर दूसरा वेष धारण करनेवाले को कालकूट विष नहीं मारता? मारता ही है। वैसे संक्लिष्ट चित्त रूप विष वेषधारी साधु की दुर्गति करता ही है ।।२१।। । यहाँ इस वर्णन को श्रवणकर क्रिया प्रति अरूचि वाले, कष्ट से भागने वाले यह कहेंगे कि साधु बनने की क्या आवश्यकता है केवल भाव शुद्धि से ही हमारा कल्याण हो जायगा। उनको प्रत्युत्तर देते हुए वेष की महत्ता भी दर्शायी है धम्म रक्खड़ वेसो, संकड़ वेसेण दिक्खिओमि अहं ।। उम्मग्गेण पडतं, रक्खड़ राया जणवउव्य ॥२२॥ वेष भी धर्म का हेतु होने से प्रधान है, चारित्र रूपी धर्म की रक्षा वेष करता है। वेष के कारण पाप कार्य में उसे संकोच लज्जा का अनुभव होता है, मैं दीक्षित हूँ, मुझे ऐसा करना शोभास्पद नहीं है, इस प्रकार उन्मार्ग प्रथित आत्मा को वेष बचाता है। उदाहरण दिया कि-जैसे राजा के भय से लोग उन्मार्ग की प्रवृत्ति से रूक जाते हैं वैसे ही वेष से उन्मार्ग.से आत्मा बच सकता है ।।२२।। श्री उपदेशमाला
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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