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किस प्रकार किया हुआ कार्य बहुत गुणकारी हो? जो बुद्धिमान साधक हृदय में ऐसी विचारणा करता है वह आत्महित को 'अइकरेइ' अतिवेग से साधता है अतिशय आदर से करता है इसीलिए कहा कि- ।।४७५ ।।
सिढिलो अणायरकओ, अवसवसकओ तह कयावकओ । सययं पमत्तसीलस्स, संजमो केरिसो होज्जा? ॥४७६॥
सतत प्रमादशील विषयेच्छा वाले का संयम शिथिल अतिचार से खरंटित होगा क्योंकि अयतना अनादर से किया जाता है और कहीं-कहीं यतना भी दूसरों के भय से की जाती है 'अवसवसकओ' गुर्वादि. प्रति परवशता पूर्वक आचरणा की जाती हो किंतु आत्म-धर्म-श्रद्धा से नहीं और कभी संपूर्ण आराधना मय, कभी संपूर्ण अविचारीपने के कारण संपूर्ण विराधना मय होने से 'कृत-अपकृत' =आराध्य विराध्य जैसा होता है। यह संयम कैसा होगा? (कुछ भी मूल्य बिना का) ।।४७६।।
चंदु व्य कालपक्ने, परिहाइ पए पए पमायपरो । तह उग्घरविघरनिरंगणो य ए॒ य इच्छियं लहइ ॥४७७॥
पग-पग पर प्रमाद तत्पर साधु कृष्ण पक्ष के चंद्र समान गुणों की अपेक्षा से क्षीण होता जाता है। और गृहस्थपने का घर तो गया परंतु साधुपने का विशिष्ट स्थान भी न मिले वैसे अंगना भी गयी. (अर्थात् संक्लिष्ट अध्यवसाय से प्रतिक्षण पाप बांधता है और घर गृहिणी आदि साधन न होने से इच्छित विषम सुख भी नहीं मिलता ।।४७७।।
भीओब्बिग्गनिलुक्को, पागडपच्छन्नदोससयकारी । अप्पच्चयं जणंतो, जणस्स थी जीवियं जियडू ॥४७८॥
और ऐसा प्रमादी जीव कौन मुझे क्या कहेगा? इस प्रकार भयभीत रहता है (कहीं भी धैर्य-स्थैर्य न होने से उद्विग्न रहता है वैसे ही (संघपुरुष आदि के भय से) 'निलुक्कको'-छुपकर रहता है क्योंकि वह प्रकट और प्रछन्न (गुप्त) शताधिक दोषों का सेवन करने वाला होता है। इसके लिए ही ऐसा जीव लोगों में, इनका धर्म इनके शास्त्रकारों ने ऐसा ही बताया होगा ऐसी बुद्धि उत्पन्न करवाकर लोगों को धर्म पर अविश्वास उत्पन्न करवाने वाला बनकर धिक्कारपात्र जिंदगी जीता है (अतः निरतिचार संयम पालन करना ही श्रेयकारी है) ।।४७८।।
श्री उपदेशमाला
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