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________________ उपदेश देते हैं परंतु कर्म के भार से भारीपने के कारण उस उपदेशित कर्तव्य को उस प्रकार स्वयं आचरते नहीं ।। ४७१ ।। वग्घमुहम्मि अहिगओ, मंसं दंतंतराउ कड्डय । मा साहसं ति जंपड़, करेड़ न य तं जहाभणियं ॥४७२॥ मा साहस पक्षी का दृष्टांत इस प्रकार खा पी के मुँह फाड़े सोये हुए व्याघ्र के मुँह में प्रवेश किया हुआ पंखी उस बाघ के दांत के आंतरों में से मांस के कणों को खींचकर खाता है और दूसरे पक्षियों को मा साहस (साहस न करो) ऐसा कहता है फिर भी स्वयं बोले हुए के अनुसार आचरण नहीं करता ।।४७२ ।। परिअट्टिऊण गंथत्थ- वित्थरं निहसिऊण परमत्थं । तं तह करेड़ जह तं न होड़ सव्वं पि नडपढियं ॥ ४७३ ॥ मा साहस पक्षी के समान सूत्र, अर्थ का विस्तार अनेक बार पुनरावर्तन से अच्छी प्रकार से अभ्यस्तकर, और मात्र अक्षर पाठ नहीं परंतु स्वर्ण को कसोटी पर कसने के समान परमार्थ सार को खिंचकर भी यानि सार प्राप्तकर भी भारे कर्मीपने के कारण वर्तन इस प्रकार करे कि वे लघुता पाते हैं और परलोक में अनर्थ के भागी बनते हैं। जैसे नट का भाषण = वह इस प्रकार - ।।४७३।। पढइ नडो वेरग्गं, निव्विज्जिज्जा य बहु जणो जेण । पढिऊण तं तह सढो, जालेण जलं समोअर ॥ ४७४ ॥ 'नाटक' करनेवाला स्पष्ट रूप से विराग के वचन बोलता है जिससे अनेक लोक संसार से उबक जावे परंतु शठ वह ऐसे ही अभिनय - हावभाव बताकर वैराग्य की बातें कर अनेकों को असर हो जाय ऐसी धर्मकथा करता है। वैसे ही केवल वेषधारी शठ आत्मा माछीमार समान माछले पकड़ने की जाल पानी में उतारता है वैसे धर्म कथा रूपी जाल से भोले जीवों को आकर्षित कर उनके पास से आहार वस्त्रादि प्राप्त करता है परंतु स्वयं सुखशीलिया बनकर संयमादि की आराधना नहीं करता ।।४७४ ।। कह कह करेमि, कह मा करोमि, कह कह कयं बहुकयं मे । जो हिययसंपसारं करेइ सो अइकरेड हियं ॥ ४७५ ॥ अतः विवेक से प्रतिक्षण ऐसा विचारना कि हितकर अनुष्ठान मैं किस प्रकार अतिशय आदर पूर्वक करूं? अहितकर में कैसे न फंसुं? किस श्री उपदेशमाला 101
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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