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________________ . श्री देलुल्लापुरस्तोत्रादि-मंत्रविधिसहितानि [१६५ . सेंधव हरडि लुद्द वच्च हिंगु जह नासिई, विसहरविस तह आदिदेव तुह नामि नासई ॥७॥" _. “हाहूतवहितस्मेफाननुयय हनून् सफेनीतनू उईन मांसरक्तिने स्वाहाः" रजोहरणेन २१ वार ऊंड्यते विषधर विषं याति यात्येव वृश्चिकादीनामपि सुठि, पीपरि, मिरी, टंकणखार, घूसउ, ए सघलां समभागि मेली जिहां डंक हुइ, अथवा दसमइ उदुआरि गद वारीइ सर्पविष जाइ निश्चइं। सैंधव, हरडइ, लोद्र, दक्षणी हींग, वज, ए समभागि मेलो वाघनइ मुत्ति नास दीजि सर्पविष जाइ अनुक्त । खजूरविषं कपिच्छवडिका पानीयेन घृष्ट वा डंके दीयते खजूरविषं याति ॥७॥ "रक्खसदंडसनांममंति जर जाइ दुत्तर, पाबूतंतिइं रत्तिजोगि जह चेव स उत्तर। . ईसरनित्ति भुयंगवल्लि वायसमल भरकणि तीअजरतेणिक्व सत्त मरि अंजणि नित्तणि ॥८॥ ॐ नमो रत्नमध्यस्थितो द्योदंडमो नामराक्षसः तस्यैकाहिक. . द्वयाहिकत्र्याहिकचातुर्थिक विषमज्वरं, तेन बंधेन बंधामि, येन . . वासुदेवेन । बलिर्बद्धः चार २१ जाप ३/३ वारे ककेकीगांठ बांधीइ . गांठि कीजई पछि त्रिणि वार कही दोरु बांधीइ वेलाज्वरो याति । काकेषु अनुथ्थितेषु ज्वरगृहीतेन गुरो राज्वान कार्य पाछु ठाकुर २ गुरुर्भणति कउण थइ स कथयति गुरु गोसामी एकांतरादि गुरुर्वक्ति जाहि २ इति पश्चात् ज्वरगृहीतेन गम्यत', पश्चान्नावलोकयेत् पूर्वदिवसोदयं यावदमिलनं अडागरपत्रत्रय बीटिकां कृत्वा चूर्णस्थ' काकविष्टां क्षिप्त्वापालिकादिने दीयते तृतीयज्वरो यात्येव रविवार कृतद्विकैकटंकविष्टां सप्तमरीचानि च संमोल्य गुटिकांजने तृतीयज्वरो यात्येव ।।८।।
SR No.002243
Book TitleMantrakalpa Sangraha tatha Gandhar Jayghoshstotradi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherMandavala Jain Sangh
Publication Year1974
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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