SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६० शास्त्रवचनों का भी उपयोग हम अपने बचाव के लिये करते हैं'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' यदि यह धर्मसाधन है ऐसा लगता है तो धर्मसाधना कब करनी ? मरने के बाद ? धर्म का साधन है तो जितनी ताकत है उतना विवेकपूर्वक उपयोग कर लेना या शरीर को संभालते ही रहना ? हमारी निःसत्वता एवं प्रभु के परमसत्व के बीच जमीन-आसमान का अंतर है । सेठ सुदर्शन का प्रसंग याद करने योग्य है। भेदज्ञान हो जाय तो वह कहीं भी दीन न बनें, शूली पर चढाने के लिये ले जाया जाता है, उस समय भी अपने कारण रानी को पीडा न हो, इसलिये मौन रहकर भी प्रतिष्ठा की खिल्ली उड़ने. दीया । शरीर की संभवित पीडाओं को स्वीकार लिया, लेकिन परपीडादायक वचन भी नहीं बोला । संगम बेचारा क्रोधांधहो जाता है। प्रभु के तरफ से कोई प्रतिकार होता: नहीं है। इसलिये वह अधिक व्याकुल होता है। इतने निष्फल हुए नेवलाओं को दूर करके ७. फणा के रत्नतेज से भी भयंकर ऐसे काले नाग को दंश देने हेतु भेजा। लेकिन ये तो प्रभु वीर थे न ? वे तो शान्त - प्रशान्त स्वरूप है । वीर शब्द की व्याख्या मालूम हैन ? विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येणयुक्तश्च, तस्माद्वीरइति स्मृतः ॥१॥ जो कर्म को नाश करने के लिये सज्ज हो, तप द्वारा शोभायमान होते हो और तपोवीर्य से युक्त हो वह वीर कहलाते है, मलयाचल पर्वत पर चंदन के वृक्ष पर डाली-डाली को कैसे सर्प लपेटे रहते है ? उसी तरह भगवान महावीर के पूरे शरीर को सर्पोने लपेटा है। डंक पर डंक मारते। है । जहर उगलते है, लेकिन समता रूपी अमृतकुंड में रहनेवाले प्रभु को 64 संगमदेव का उपसर्ग । प्रभूवीर एवं उपसर्ग
SR No.002241
Book TitlePrabhu Veer evam Upsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreyansprabhsuri
PublisherSmruti Mandir Prakashan
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy